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भगवान् वीरप्रभुके पांच हस्तोत्तर नक्षत्र (उत्तरा फाल्गुनि नक्षत्र था)(१) हस्तोत्तरा नक्षत्र में दशवा देवलोकसे चचके देवानंदा ब्राह्मणीकी कुक्षिमें अवतार धारण किया. (२) हस्तोचरा नक्षत्रमें भगवानका संहरण हुवा, अर्थात् देवानंदाकी कुखसे हरिणगमेषी देवताने त्रिशलादे राणीकी कुखमें संहरण कीया. (३) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानका जन्म हुवा (४) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानने दीक्षा धारण करी. (५) हस्तोत्तरा नक्षत्रमें भगवानको केवळज्ञान उत्पन्न हुवा. यह पांच कार्य भगवानके हस्तोत्तरा नक्षत्रमें हुवा है. और स्वांति नक्षत्रमे भगवान् वीर प्रभु मोक्ष पधारेथे. शेषाधिकार पर्युषणाकल्प अर्थात् कल्पसूत्रमें लिखा है. श्रीभद्रबाहुस्वामी यह दशाश्रुत स्कन्ध रचा है. जिसका आठवा अध्ययनरुप कल्पसूत्र है. उसके अर्थरुप भगवान वीरप्रभु बहुतसे साधु, साध्वीयों, श्रावक, श्राविका, देव, देवीयोंके मध्यमे विराजमान हो फरमाया है. उपदेश किया है. विशेष प्रकारसे प्ररुपणा करते हुवे वारवार उपदेश किया है.
इति आठवा अध्ययन.
[९] नौवा अध्ययन. महा मोहनीय कर्म बन्धक ३० स्थान है.
चंपानगरी, पूर्णभद्रोद्यान, कोणिकराजा, जिसकी धारिणी राणी, उस नगरीके उद्यानमें भगवान् वीर प्रभुका भाग