Book Title: Shighra Bodh Part 16 To 20
Author(s): Gyansundar
Publisher: Ravatmal Bhabhutmal Shah

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Page 413
________________ (४) हे आर्य ! मैं धर्म प्ररुपण कीया है. वह यावत् सर्व दुःखोंका अन्त करनेवाला है. इस धर्मको धारण कर साध्वीयों अनेक प्रकारके परीषह सहन करती हुइ किसी समय पुरुषोंको देखे, जैसे उग्र कुलकी महामातसे जन्मा हुवा, भोगकुलकी महामातासे जन्मा हुवा, नगरसे जाते हुवे तथा नगरमें प्रवेश करते हुवे जिन्होंकी ऋद्धि-साहिबी, पूर्वकी माफिक एकको बोलानेपर च्यार पांच हाजर होवे ऐसे ऋद्धिवन्त पुरुषोंको देख, साध्वी निदान करेकि-अहो ! लोकमें स्त्रीयोंका जन्म महा दुःख दाता है. अर्थात् स्वीपना है, वह दुःख है. क्योंकि ग्राम यावत् राजधानी सनिवेशकी अन्दर खुल्ला रहके फिर सके नहीं. अगर फिरे तो, स्त्री जाति कैसी है. सो दृष्टान्त-आम्रके फल, आंबलिके फल, बीजोरके फल, मंसपेसी, इतुके खंड, संबलीवृक्षके सुन्दर फल, यह पदार्थों बहुतसें लोगोंको आस्वादनीय लगते है. इस पदार्थोंको बहुत लोक खाना चाहते हैं, बहुत लोक इसकी अपेक्षा रखते हैं, बहुत लोक इसकी अभिलाषा रखते है. इसी माफिक स्त्री जातिकी बहुतसे लोक आस्वादन ( भोगवना) करना चाहते है. यावत् स्त्रीजातिको कहांभी सुख-चेन नहीं है. सर्व गृहकार्य करना पड़ता है. औरभी स्त्रीजातिपन एक दुःखका खजाना है. वास्ते स्त्रीपन अच्छा नहीं है. परन्तु पुरुषपन जातमें अच्छा है, स्वतंत्र है. अगर हमारे तप, संयम, ब्रह्मचर्यका फल हो, तो भविष्यमें हम पुरुष उग्र कुल, भोगकुल यावत् महा

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