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ऋद्धिवान् पुरुष हो. स्त्रीयोंके साथ मनुष्य संबन्धी भोग भोगवते विचरे. इति साध्वी निदान कर उसकी आलोचना न करे यावत् प्रायश्चित्त न लेवे. काल कर महर्द्धिक देवपने उत्पन्न हो. वह देवसंबन्धी सुख भोग प्रायुप्यके अन्तमे वहांसे चवके कृतनिदान माफिक पुरुषपने उत्पन्न होवे, वह धर्म सुननेके लीये अयोग्य अर्थात् धर्म सुननाभी उदय नहीं आता. वह कृत निदान पुरुष महारंभ, महापरिग्रह, महा भोग भोगवनेमें गृद्ध मूञ्छित हो, अन्तमे काल कर दक्षिण दिशाकी नारकीमे नैरियपने उत्पन्न हुवे. भविष्यमेभी दुर्लभ बोधि होवे.
हे आर्य ! इस निदानका यह फल हुवाकि यह जीव केवली प्ररुपित धर्मभी सुन नहीं सके. अर्थात् धर्म सुननेकोभी अयोग्य होता है. । इति ।
(५) हे आर्य ! मैं जो धर्म प्ररुपित किया है. यावत् उस धर्मकी अन्दर साधु-साध्वी अनेक परीषह सहन करते हुवे, धर्ममे पराक्रम करते हुवे मनुष्य संबन्धी कामभोगोंसे विरक्त हुवा ऐसा विचार करेक-अहो ! आश्चर्य ! यह मनुष्य संबन्धी कामभोग अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत, सडन पडन विध्वंसन इसका सदैव धर्म है. अहो ! यह मनुष्यका शरीर मल मूत्र, श्लेष्म, मंस, चरबी, नाकमेल, वमन, पित्त, शुक्र, रक्त, इत्यादि अशुचिका स्थान है, देखनेसेही विरुप दिखाता है. उश्वास निश्वास दुर्गन्धिमय है. मल, मूत्र कर भरा हुवा है.