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तुमको सुख हो वैसा करो परन्तु जो धर्मकार्य करना हो उसमें समय मात्र भी प्रमाद मत करो'। ऐसी आज्ञा होने पर आनन्द श्रावक भगवान के समीप श्रावक व्रतको धारण करना प्रारंभ किया।
(१) प्रथम स्थूल प्राणातिपात अर्थात् हलता चलता त्रिस जीवोंको मारने का त्याग जायजीवतक, दोय करन स्वयं कीसी
१ आनन्दने प्रथम व्रतमें बस जीवोंको हणनेका प्रत्याख्यान दोय करण और तीन योगम किया है. जैसे कि हालमें सामायिक पौषधर्म दाय करण और तीन योगसे प्रत्याख्यान करते हैं विशप इतना है कि सामायिक पोसहमें सर्व सावा कात्याग हैं और आनन्दजीने त्रस जीवोंको माग्नेका त्याग कीया था।
बहुतस ग्रन्धोंमें श्रावकक सवा विसवा दया कही गइ हैं उन्हीमें स्थावर जीवों की दश विसवा दया तो श्रावकम पल ही नहीं सके और बस जीवोमें भी निर्विकल्पके पांच विसवा, अपराधीक अढाई. आकुटीका सवा एवं १८॥ विसवा बाद करतां सवा विसवा दया श्रावकके होती हैं । यह एक अपेक्षास सत्य है कि जिन्होंने छठा, सातवां, आठवां व्रत नहीं लिया है जिसको १४ राजलोकके स्थावरजीव खुल्ले हैं।
जो श्रावक वस जावाको मारनेका कामी नहीं है. उन्होंक १० दश विसवा दया वस जीवांकी होती है और स्थावर जीवोंके लिय छा व्रतकी मयादा करते हैं तो मयांदके बहारके असंख्यात कोडानुकोड अर्थात् मर्याद के सिवाय चौदह राजलोकके स्थावर जीवोंको मारने का भी श्रावक त्यागी है वास्ते पांच विसवा दया पल सकती है। अब मर्यादाकी भूमिकामें बहुतम द्रव्य है जिसमें सातवां व्रतमें उपभोग परिभोगकी मर्यादा करनेमे द्रव्य रखने के सिवाय सब स्थावर जीवोंकी दया पल जानेसे अढाई क्सिवा दया होती है जब द्रव्यादिकी मर्याद करी थी उन्होंमें भी अनर्थदंडके प्रत्याख्यान करनेसे सवा वीसवा दया पल जाती है एवं १०-५... २ ।।--१। मीलके १८॥ वीसवा ढया बाराव्रती श्रावकसे पल सकती है।