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सर्वज्ञ वीर प्रभु अमन्ताकुमारकों धर्म देशना सुनाइ। अ. मन्तीकुमर बोलाकी हे करूणासिंधु आपकि देशना सुनमें संसारसे भयभ्रांत हुवा में मेरे मातापिताको पुच्छके आपके पास दीक्षा ले उंगा “जहा सुखं " प्रमाद मत करों। अमन्तोंकुमर भगवानकों चन्दनकर अपने मातापिताके पास आया और बोलाकि हे माता आजमें धीरप्रभुकि देशना सुनके जन्ममरणके दुःखोंसे मुक्त होनेके लिये दीक्षा लेउंगा । ऐसीवाते सुनके दुसरोंकि मातावोंकों रंज हुवा करता था परन्तुयहां अमन्ताकुमार कि माताको विस्मय हुवा और बोली की हे वत्स! तुं दीक्षा और धर्मकों क्या जानता है ? कुमरजीने उत्तर दिया कि हे माता! में जानता हूं उसको तो नहीं जानता हूं और नहीं जानता हु उसको जानता हु । माताने कहा कि यह केसा?
हे माता! यह में निश्चिंत जानता हूं कि जितने जीव जन्मते है वह अवश्य मृत्युको भी प्राप्त होते है परन्तु में यह नहीं जानता हुं कि किस समयमे किस क्षेत्रमें और किस प्रकारसे मृत्यु होगी । हे माता! में नहीं जानता हूं कि कोनसा जीव कीस कर्मों से नरकं तीर्यच मनुष्य और देवगतिमें जाता है, परन्तु यह बात में निश्चय जानता हूं कि अपने अपने किये हुवे शुभाशुभ कर्मासे नारकी तीर्यच मनुष्य और देवतोमें जाते हैं। इस वास्ते हे माता! में जानता हुं वह नहीं जानता और नहीं जानता वह जानता हुं । बस! इतने में माता समझ गई कि अब यह मेरा पुत्र घरमें रहेनेवाला नहीं है। तथापि मोहप्रेरित बहुतसे अनुकुल-प्रतिकुल शब्दोंसे समझाया, परन्तु जिन्होंकों असली वस्तुका भान हो गया हो वह इस कारमी मायासे कबी लोभीत नही होता है अमन्ताकुमार को तो शिवसुन्दरीसे इतना बडा प्रेम हो रहा था कि में कीतना जल्दी जाके मीलु ।