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पांचवा उद्देशा.
(१) किसी देवताने स्त्रीका रुप वैक्रिय बनाके किसी साधुको पकडा हो, उसी समय उस वैक्रिय स्त्रीका स्पर्श होनेसे साधु मैथुनसंज्ञाकी इच्छा करे, तो गुरु चातुर्मासिक प्रायचित्त होता है,
(२) एवं देव पुरुषका रुप करके साध्वीको पकडने पर भी.
( ३ ) एवं देवी स्त्रीका रुप बनाके साधुको पकडै तो.
( ४ ) देवी पुरुषरुप चनाके साध्वीको पकडने पर भी समझना. भावार्थ-देव देवी मोहनीय कर्म-उदीरण विषय परीषह देवे, तो भी साधुवोंको अपने व्रतोंमें मजबुत रहना
चाहिये.
(५) साधु आपसमे कषाय-क्रोधादि करके स्वगच्छसे नीकलके अन्य गच्छमें गया हो तो उस गच्छके आचार्यादिकोंको जानना चाहिये कि उस आये हुवे साधुको पांच रोजका छेद प्रायश्चित्त देके स्नेहपूर्वक अपने पासमें रखे. मधुर वचनोंसे हितशिक्षा देके वापिस उसी गच्छमें भेज देवे. कारण असी वृत्ति रखनेसे साधु स्वच्छन्द न बने. एक दुसरे गच्छकी प्रतीति विश्वास बना रहै, इत्यादि. • (६) साधु-साध्वीयोंकी भिक्षावृत्ति सूर्योदयसे अस्त तक है. अगर कोइ कारणात् समर्थ साधु निःशंकपणे-अर्थात्