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कया है यावत् तापसी दीक्षा लेली है तो अब मुझे सूर्योदय होतेही पूर्वसंगातीया तापस तथा पीच्छेसे संगती करनेवाला तापस ओरभि आश्रमस्थितोंकों पुच्छके वागलवस्त्र; वांसकि कावड लेके, काष्टकि मुहपति मुहपर बन्धके उत्तरदिशाकि तर्फ मुह करके प्रस्थान करू एसा विचारकरा ।
सूर्योदय होतेही अपने रात्री में कियाहुवा विचारमाफीक वागलवस्त्र पहेरके बांसकी कावड लेके. काष्टकि मुहपति से मुहबन्धके उत्तरदीशा सन्मुख मुहकरके सोमल महाणऋषि चलना प्रारंभकीया उस समय औरभि अभिग्रह करलिया कि चलते चलते, जल आवे, स्थल आवे, पर्वत आवे, खाडआवे, दरी आवे विषमस्थान आवे अर्थात् कोइ प्रकारका उपद्रव आवे तोभी.. पीच्छा नही हटना. एसा अभिग्रहकर चला जाते जाते चरम प होरहुवा उससमय अपने नियमानुसार अशोकवृक्षके निचे एक वेलुरेतीकी वेदका रची उसपर कावडधरी डाबतृण रखा. आप गंगानदीमें जाके पूर्ववत् जलमज्जन जलक्रीडा करी फीर उस अशोकवृक्ष के नीचे आके काष्टकि मुहपति से मुहबन्ध लगाके चूपचाप बैठगया ।
आदी रात्री के समय सोमल ऋषिके पास एक देवता आया. वह देवता सोमलऋषिप्रते एसा बोलताहुवा । भो ! सोमल माहऋषि ! तेरी प्रवृजा (अर्थात् यह तापसी दीक्षा) है वह दुष्ट प्रवृजा है. सोमलने सुना परन्तु कुच्छभी उतर न दीया, मौन कर ली । देवताने दुसरी-तीसरीवार कहा परन्तु सोमल इस बातपर ध्यान नही दीया । तब देव अपने स्थान चला गया.
सूर्योदय होतेही सोमल वागलके वस्त्र पहेर कावडादि उपकरण ले काष्टकी मुहपतिसे मुहबन्ध उत्तरदिशाकों स्वीकारकर चलना प्रारंभ करदीया, चलते चलते पीच्छले पहोर सीतावनवृक्ष