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प्रकारसे धर्मदेशना दी अन्तमे फरमाया कि हे भव्य जीवों इस संसारके अन्दर पौदगलीक, अस्थिर सुखॉकों, दुनिया सुख मान रही है परन्तु वस्तुत्व यह एक दुःखका घर है. वास्ते आत्मतत्व वस्तुको पेछान इस करमे सुखोंका त्यागकर अपने अबाधित सुखोंकों ग्रहन करों. अक्षय सुखोंकों प्राप्त करनेवालेको पेस्तर चारित्र राजासे मीलना चाहिये अर्थात् दीक्षा लेना चाहिये। इत्यादि।
श्रोतागण देशना सुन यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यान ग्रहनकर भगवानको वन्दन नमस्कार कर निज स्थान गमन करते हुवे ।
निषेढकुमर देशना सुन वन्दन नमन कर बोला कि हे भगवान आप फरमाया वह सत्य है यह नाशमान पौदगलीक सुख दुःखोंका खजाना ही है । हे प्रभु धन्य है जो राजा महाराजा सेठ सेनापति जोकि अपके समिप दीक्षा लेते है, हे दयाल मैं दीक्षा लेने में असमर्थ हु परन्तु मैं आपकि समीप श्रावकधर्म अर्थात् बारहव्रत ग्रहन करूंगा। भगवान ने फरमाया कि “ जहासुखम् "
निषेढकुँमर स्वइच्छा मर्याद रखके श्रावकके बारह व्रत धारण कर भगवान को वन्दन न कर अपने रथ परारूढ हो अपने स्थान पर चला गया । . भगवान नेमिनाथ प्रभुका जेष्ट शिष्य वरदन नामका मुनि भगवानकों वन्दन नमस्कार कर प्रश्न करता हुवा कि हे प्रभो! यह निषेढ कुमर पुर्व भवमें क्या पुन्य किया है कि बहुतसे लोगोंकों प्रिय लगता है सुन्दर स्वरूप यश कीर्ति आदि सामग्री प्राप्त हुई है।
भगवानने फरमायाकि हे वरदत्त! इस जम्बुद्विपके भरतक्षे