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( २ ) उक्त कार्य साध्वीयों भी साधुके मकान पर न करे-कारन इसीसे अधिक परिचय बढ जाता है। दूसरे भी अनेक दूषण उत्पन्न होते है । अगर साधुओंके स्थान पर व्याख्यान और आगमवाचना होती हो, तो साध्वीयों जा सकती है, व्यवहारसूत्रमें एसा उल्लेख है।
(३) साध्वीयोंको रोमयुक्त चर्मपर बैठना नहीं कल्प। भावार्थ-अगर कोइ शरीरके कारनसे चर्म रखना पडे तो भी रोमसंयुक्त नहीं कल्प।
(४) साधुओंको अगर किसी कारणवशात् चर्म लाना हो तो गृहस्थोंके वहां वापरा हुवा, वह भी एक रात्रिके लिये मांगके लावे । वह रोमसंयुक्त हो तो भी साधुओंको कल्पै ।
(५) साधु साध्वीयोंको संपूर्ण चर्म, (६) सम्पूर्ण वस्त्र, (७) अभेदा हुवा वस्त्र लेना और रखना-बापरना नहीं कल्पै । भावार्थ- सम्पूर्ण चर्म और वस्त्र कीमती होता है, उससे चौरादिका भय रहेता है, ममत्वभावकी वृद्धि होती है, उपधि अधिक बढती है, गृहस्थोंको शंका होती है । वास्ते । ८) चर्मखण्ड, (६) वस्त्रखण्ड, (१०) अगर अधिक खप होनेसे सम्पूर्ण वस्त्र ग्रहण किया हो तो भी उसका काममें आने योग्य खण्ड, खण्ड करके साधु रख सकता है। ... (११ ) साध्वीयोंको काच्छपाट ( कच्छपटा) और कंचुवा रखना कल्पै । स्त्रीजाति होनेसे शीलरक्षाके लिये