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था जिस्का कटिका भाग नम गया था जंघा पतली पड गई थी. स्तनका अदर्श आकार अर्थात् वीलकुलही दीखाई नही देता था इत्यादि, जिस्कों कोइभी पुरुष परणनेकि इच्छाभी नही करता था.
उसी समय, निलवर्ण, नौ-कर (हाथ) परिमाण शरीर, देवादिसे पुजित तेवीसवां तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु सोल हजार मुनि अडतीस हजार साध्वियोंके परिवारसे पृथ्वी मंडलकों पवित्र करते हुवे राजग्रहोद्यानमें पधारे । राजादि सर्व लोक भगवानकों वन्दन करनेको गये।
यह वात भूतानेभी सुनी अपने माता पिताकि आज्ञा ले स्नान मजनकर च्यार अश्वका रथ तैयार करवाके बहुतसे दास दासीयों नोकर चाकरोंके परिवारसे राजग्रह नगरके मध्यभागसे निकलके वगेचेमे आइ भगवानके अतिशय देखके रथसे निचे उत्तर पांचाभिगमसे भगवानकों वन्दन नमस्कार कर सेवा क
रने लगी.
उस विस्तारवालो परिषदाकों भगवानने विचित्र प्रकारसे धर्मदेशना सुनाइ अन्तिम भगवानने फरमायाकि हे भव्यजीवों ! संसारके अन्दर जीव-सुख-दुःख राजारंक रोगी निरोगी, स्वरूपकुरूपवान, धनाढ्य दालीद्र उच गौत्र निच गौत्र इत्यादि प्राप्त करते है वह सब पुर्व उपार्जन किये हुवे सुभासुभ कर्मोंकाही फल है। वास्ते पेस्तर कर्मस्वरूपको ठीक ठीक समझके नवा कर्म आनेके आश्रव द्वार है उसको रोकों ओर तपश्चर्या कर पुराणे कर्मों को क्षय करो तांके पुनः इस संसारमें आनाही न पडे इत्यादि ।
देशना श्रवण कर परिषदा आनन्दीत हो यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यान कर वन्दन नमस्कार स्तुति करते हुवे स्व स्त्र स्थान गमन करने लगे।