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છૂટ
उ० ) हे सोमल ! तुमारे ब्राह्मणोंके न्यायशास्त्र में कुलत्थ दो प्रकारका कहा है ( १ ) स्त्रिकुलत्थ ( २ ) धान्न कुलत्थ । जिसमें त्रिकुलत्थके तीन भेद है । कुलकन्या, कुलवहु, कुलमाता, यह श्रम
निग्रन्थोंकों अभक्ष है और धान्नकुलत्थ जो सरसव धान्नकि माफक जो लद्धिया है वह भक्ष है शेष अभक्ष है इसवास्ते हे सोमल कुलत्थ भक्ष भी है तथा अभक्ष भी है ।
( प्र०) हे भगवान ! आप एकाहो ? दोयहो ? अक्षयहो ? अवेद हो ? अवस्थितहो ? अनेक भावभूतहो ?
( उ० ) हां सोमल ! मैं एक भिहुं यावत् अनेक० । ( प्र० ) हे भगवान ! एसा होनेका क्या कारण है ।
( उ० ) हे सोमल ! द्रव्यापेक्षामें एक हूं। ज्ञानदर्शनापेक्षामें दोय हूं. आत्मप्रदेशापेक्षा में अक्षय, अवेद, अवस्थित हूं० और उपयोग अपेक्षा अनेक भावभूत हूं, कारण उपयोग लोकालोक व्यात है वास्ते हे सोमल एक भी मैं हु यावत् अनेक भावभूत भी
मैं
हु.
इस प्रश्नोंका उत्तर श्रवणकर सोमल ब्राह्मण प्रतिबोधीत होगया | भगवान को वन्दन नमस्कार कर बोला कि हे प्रभु! मैं आपकि वाणीका प्यासा हूं वास्ते कृपाकर मुझे धर्म सुनावों.
भगवानने सोमलको विचित्र प्रकारका धर्म सुनाया. सोमल धर्म श्रवणकर बोला कि हे भगवान ! धन्य है आपके पास संसारीक उपाधियों छोड़ दीक्षा लेते है उन्हको ।
हे भगवान | मैं आपके पास दीक्षा लेने में तो असमर्थ हूं । किन्तु मैं आपके पास श्रावकव्रत ग्रहन करूंगा । भगवानने फरमाया कि " जहासुखं सोमल ब्राह्मण परमेश्वर पार्श्वनाथजीके
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