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समय रात्रीमें धर्मजागरना करते हुवे यह भासमान हुवा कि में वाणीयाग्राम नगरम गजा उपराजा शेठ सेनापति आदिके मानने योग्य हुं परन्तु भगवानके पाम दीक्षा लेनेको असमथ हुँ, वास्ते कल सूर्यादय होते ही विस्तरण प्रकारका आसनादि तैयार करवाके न्यात जातिको बोलके उन्होंको भजन कराके ज्येष्ठ पुत्रको कुटुम्बके आधारभूत स्थापन कर में उक्त कोल्लाक मन्निवेशमें अपने मकान पर जाके भगवानसे प्राप्त किये हुवे धर्मसे मेरा आत्मा कल्याण करता हुआ विचरूं। एमा विचार कर सूर्योदय होनेपर वह ही कीया, अपने ज्येष्ठ पुत्रको थरका कारभार सुप्रत कर आप कोल्लाक सन्निवेशमें जा पहुंचा। अब आनन्द श्रावक उसी पौषधशालाको प्रमार्जन कर उच्चार पासवण भूभिको प्रमार्जन कर भगवान वीरप्रभुसे जो आत्मीक ज्ञान प्राप्त कीया था उसके अन्दर रमणता करने लगा।
आनन्द श्रावक वहांपर श्रावककी ११ प्रतिमा ( अभिग्रह विशेष ) को धारण करके प्रवृत्ति करने लगा। इन्होंका विस्तार शीघ्रबोध भाग ४ से देखो यावत् साढे पांचवर्ष तक तपश्चर्या करके शरीरको कृश बना दीया अर्थात् शरीरका उस्थान बल कर्मवीर्य और पुरुषार्थ बिलकुल कमजोर हो गया, तब आनन्द श्रावकने विचारा कि अब अन्तिम अनशन ' मलेखना' करना ठीक है । बस, आनन्दने आलोचना करके-अनशन करके अठारा पापस्थान और च्यार आहारका पचखान कर आत्मध्यानमें रमणता करता हुवा। शुभाध्यवसाय-अच्छे परिणाम प्रशस्त लेश्या होनेसे आनन्दको अवधिज्ञान उत्पन्न हुवा सो पूर्व पश्चिम और दक्षिण दिशा लवणसमुद्रमें पांचसो पांचसो योजन क्षेत्र और उत्तरमै चुलहेमवन्त पर्वत तक देखने लग गया। उर्ध्व सौधर्मदे