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प्रतिष्टाको प्राप्त कर अपना नाम "देवसच्चे" एसा विश्व व्यापक कर दीया था।
उसी यक्षायतनके नजीकमे सुन्दर मूल स्कन्ध कन्द शाखा प्रतिशाखा पत्र पुष्प फलसे नमा हुवा श्रमको दुर करनेवाला शीतल छाया सहित आशोक नामका वृक्ष था । जीसके आश्रयमें दुपद चतुष्पद पशु पंखी अति आनंद करते थे।
उसी अशोक वृक्षके नीचे मेघकी घटाके माफीक श्याम वर्ण सुन्दराकर अनेक चित्रविचित्र नाना प्रकारके रुपोंसे अलंकृत सिंहासनके आकार पृथ्वीशीला नामका पट था। इन्ही सर्वका वर्णन उववाई सूत्रसे देखना।
द्वारका नगरीके अन्दर न्यायशील सूरवीर धीर पूर्ण पराक्रमी स्वभुजावोंसे तीन खंडकी राज्यलक्ष्मीको अपने आधिन कर लीथी । सुरनर विद्याधरोंसे पूजित जिन्होंका उज्वल यश तीन लोकमें गर्जना कर रहा था । उत्तरमें वैतादयगिरि और पूर्व पश्चिम दक्षिणमें लषण समुद्र तक जिन्होंका राजतंत्र चल रहा है एसा श्रीकृष्ण नामका वासुदेव राजा राज कर रहा था। जिस धर्मराज्यमें बडे बडे सत्वधारी महान् पुरुष निवास कर रहे थे। जैसे कि समुंद्रविजयादि 'दश दसारेण राजा, बलदेव आदि पंच महावीर, प्रद्योतन आदि साढा तीन क्रोड केसरीये कुमर, साम्ब आदि साठ हजार दुर्दात राजकुमार। - महासेनादि छपन्नहजार बलवन्त वर्ग, वीरसेनादि एकवीसहजार वीरपुरुष उग्गरसेनादि सोलाहजार मुगटबन्ध राजा हा
.... १ समुद्रविजय, अक्षोभ, स्तिमीत, सागर, हेमवन्त, अचल, धरण, पुरण, अभिचन्द वसुदेव इन्ही दशों भाइयोंको शास्त्रकारोंने दश दसारेणके नामसे ओलखाया हैं।