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किया। जिसमें मुख्य जीव और कर्मोंका स्वरूप बतलाया कि हे भव्यात्माओ ! यह जीव निर्मल ज्ञानादि गुणयुक्त अमूर्त है और सद् चिदानन्दमय है परन्तु अज्ञानसे पर वस्तुओंको अपनी कर मानी है । इन्हीसे उत्पन्न हुवा राग-द्वेषके हेतुसे कमका अनादि कालसे चय - उपचय करता हुवा इस अपार संसारके अन्दर परि भ्रमण कर रहा है । वास्ते अपनी निजसत्ताको पहिचान के जन्म. जरा, मृत्यु आदि अनन्त दुःखोंका हेतु यह अनित्य असार संसारके बन्धन से छूटना चाहिये । इत्यादि देशना देके अन्त में फरमाया कि मोक्षप्रातिके मुख्य कारण दोय है (१) साधु धर्म-सर्वथा निर्वृत्ति । (२) श्रावक धर्मजो देशसे निवृत्ति, इस दोनों धर्मसे यथाशक्ति आराधना करनेसे संसार का पार हो के स्वसत्ताका राज मील सक्ता है।
यह अमृतमय देशना देवता, विद्याधर और राजादि श्रवण कर सहर्ष बोले कि हे करुणासिन्धु ! आपने यह भवतारक देशना दे के जगत के जीवोंपर अमूल्य उपकार किया है । इत्यादि स्तुति कर अपने २ स्थान पर गमन करते हुवे ।
आनन्द गाथापति देशना सुनके सहर्ष भगवानको वन्दननमस्कार कर बोला कि हे भगवान! मैं आपकी सुधारस देशना अवण कर आपके वचनोकी अन्तर आत्मासे श्रद्धा हुइ है । और मेरे वो प्रतीति होनेसे धर्म करनेकी रुचि उत्पन्न हुइ है, परन्तु हे दीearth? धन्य है जगतमें राजा, महाराजा । शेठ सेनापति आदि को जो कि राजपाट, धन, धान्य, पुत्र, कलत्रका त्याग कर आप के समीप दीक्षा ग्रहण करते है परन्तु मैं ऐसा समर्थ नहीं हूं । हे प्रभो ! मैं आपसे गृहस्थ धर्म अर्थात् श्रावकके बारह व्रत ग्रहण करूंगा । भगवानने फरमाया कि "जहा सुखं" हे आनन्द ! ' जैसा