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का साहस न करता। कोई भी व्यक्ति चोरी की वस्तु का प्रदर्शन नहीं करता। इसके अतिरिक्त कतिपय अप्रचलित व्याकरण सम्बन्धी प्रयोग जो कलिदास के ग्रन्थों में पाए हैं, उनका प्रयोग अश्वघोष के ग्रन्थों में बार-बार आया है । इससे ज्ञात होता है कि अश्वघोष ने ही कालिदास से भाव लिए हैं, न कि कालिदास ने अश्वघोष से ।।
यदि अश्वघोष कालिदास से पूर्ववर्ती प्रतिष्ठित कवि था और कालिदास ने उससे भावादि लिए हैं तो बाद के कवि भी उसका आदरपूर्वक उल्लेख करते। परन्तु किसी भी कवि ने अश्वघोष का न नामोल्लेख किया है और न उसकी शैली का अनुसरण ही किया है । यह नहीं माना जा सकता है कि कालिदास ने अश्वघोष का अनुकरण किया और उससे अधिक योग्य हो गए, क्योंकि यदि कालिदास को परकालीन माना जाय तो उसके लिए वत्सभट्टि आदर्श कवि हो सकता था । तथ्य यह है कि अश्वघोष मुख्य रूप से एक दार्शनिक था और गौण रूप से कवि । अतः उसने अपने काव्य के लिए एक प्रसिद्ध कवि को आदर्श रक्खा होगा। उसके काव्यों को देखने से ज्ञात होता है कि उसका आदर्श कवि कालिदास ही है । अश्वघोष का समय प्रथम शताब्दी ई० है, अतः कालिदास का समय प्रथम शताब्दी ई० पू० मानना उचित है ।।
कालिदास का यह समय मानने के समर्थन में कतिपय साक्ष्य उसके ग्रन्थों से उपलब्ध होते हैं । उसने दाश्वान्, विश्रामहेतोः, पेलव, त्रियम्बक, आस आदि शब्दों का प्रयोग किया है। कुछ धातुओं के लिट् लकार के पूर्ण रूप को दो भागों में विभक्त किया है । जैसे-तं पातयां प्रथममास पपात पश्चात् ।' पाणिन के व्याकरण के अनुसार यह प्रयोग शुद्ध नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि कालिदास उस समय जीवित थे, जब पाणिनि पौर पतंजलि के नियम पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित नहीं हुए थे । अतः कालिदास का समय प्रथम शताब्दी ई० पू० ही ज्ञात होता है।
शाकुन्तल नाटक में धीवर को चोरी के अपराध में कठोर दण्ड तथा उत्तराधिकार के नियम का जो रूप प्राप्त होता है, उससे ज्ञात होता है कि