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अध्याय ३६
उपसहार पूर्व अध्यायों में दिए हुए विवरण से स्पष्ट है कि साहित्य का ऐसा कोई भी अंग नहीं है, जिसका विवेचन और विश्लेषण संस्कृत में न हुआ हो। साहित्यिक भाषा के रूप में संस्कृत की लोकप्रियता का यही मुख्य कारण है । बौद्धों और जैनों ने ईसा से पूर्व संवत् में यह प्रयत्न किया कि संस्कृत को इस स्थान से च्युत किया जाय, परन्तु उनके सब प्रयत्न निष्फल रहे और अन्त में उन्हें साहित्यिक कार्यों के लिए संस्कृत को अपनाना पड़ा। ___ जैसा कि संस्कृत नाम से स्पष्ट है कि यह भाषा वैयाकरणों के द्वारा इतनी अधिक परिमार्जित और परिष्कृत की गई कि वह पूर्णता को प्राप्त हो गई और कोई भी भाषा उच्चारण, भाषा, शन्द-कोष और वाक्यविन्यास आदि किसी भी दृष्टि से इसकी समानता नहीं कर सकती थी। अतएव इसे दैवी वाक् या देवभाषा नाम दिया गया। भारतवर्ष की सभी भाषाएँ, बिना किसी अपवाद के संस्कृत के साहचर्य से समुन्नत हुई हैं । __भारत की साहित्यिक भाषा के रूप में संस्कृत का महत्व और अधिक है, क्योंकि भारतीय संस्कृति का समस्त वाङमय संस्कृत में ही उल्लिखित है । भारतवर्ष का महत्त्व मुख्य रूप से उसकी सांस्कृतिक परम्परा के कारण ही है । भारतवर्ष की सीमा के बाहर के देशों ने भी आवश्यकता और कठिनाई के समय भारतवर्ष से ही प्रोत्साहन और पथप्रदर्शन प्राप्त किया है।
संस्कृत भाषा में लिखे हुए साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन समय में किस प्रकार भारतवर्ष ने सभी दिशाओं में उन्नति की थी और किस प्रकार भारतीय संस्कृति अभ्युन्नत दशा में थी। भारतीय संस्कृति के विभिन्न रूपों का वर्णन संस्कृत में प्राप्त होता है । भौतिक उन्नति की अपेक्षा आत्मिक उन्नति को अधिक महत्त्व दिया जाता था और दैनिक जीवन में