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राजशेखर ( ६०० ई०) का कथन है कि दण्डी ने तीन ग्रन्थ लिखे हैं । काव्यादर्श और दशकुमारचरित ये दोनों उसके ग्रन्थ माने जाते हैं । कुछ समय पूर्व यह विचार प्रस्तुत किया गया था कि छन्दोविचिति और कला - परिच्छेद उसके श्रन्य ग्रन्थ हैं । परन्तु यह विचार निरर्थक था । भोज ( १००० ई०) ने अपने शृङ्गारप्रकाश में उल्लेख किया है कि दण्डी का एक द्विसन्धान पद्धति का काव्य है । यह सम्भव है कि दण्डी ने इस प्रकार का कोई काव्य लिखा हो, परन्तु वह नष्ट हो चुका है ।
गद्यकाव्य
सुबन्धु ने वासवदत्ता नामक गद्यकाव्य लिखा है । यह मत भ्रमात्मक है कि बाण ने हर्षचरित में इसका उल्लेख किया है । बाण ने सुबन्धु-रचित वासवदत्ता का उल्लेख किया है, परन्तु वह सुबन्धु पतंजलि ( १५० ई० पू० ) से पूर्ववर्ती लेखक है । बाण की कादम्बरी का इस पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है, इसके समर्थन के लिए बहुत से प्रमाण इस ग्रन्थ में उपलब्ध होते हैं । गौडवो के लेखक वाक्पति ( ७२० ई० ) ने सुबन्धु के नाम का उल्लेख किया है | अतः सुबन्धु का समय ७०० ई० के लगभग ज्ञात होता है और विशेष रूप से सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में । सुबन्धु के समय का निर्णय इसके ग्रन्थ में उपलब्ध दो उल्लेखों के आधार पर किया जाता है -- ( १ ) एक बौद्ध ग्रन्थ का उल्लेख, (२) प्रसिद्ध नैयायिक उद्योतकर का नामोल्लेख । इनमें से प्रथम उल्लेख अस्पष्ट है, अतः उसके आधार पर कोई निर्णय नहीं किया जा सकता । उद्योतकर का समय छठीं शताब्दी है, अतः सुबन्धु का समय ७०० ई० के लगभग मानना उचित है । एक भारतीय परम्परा के अनुसार सुबन्धु वररुचि का भतीजा था । परन्तु इस परम्परा से कोई सहायता प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि वररुचि का समय निश्चित नहीं है ।
वासवदत्ता में राजकुमारी वासवदत्ता की कथा है । राजकुमार कन्दर्पकेतु ने स्वप्न में उसका दर्शन किया और वह उससे मिलने के लिए चल पड़ा । राजकुमारी ने कन्दर्पकेतु का स्वप्न में दर्शन किया और वह उस पर मुग्ध हो गई । वासवदत्ता ने अपनी दासी को कन्दर्पकेतु का पता लगाने के लिए
सं० सा० इ० - - १२