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संस्कृत साहित्य का इतिहास __प्राकृतसूत्रों के रचयिता रामायण के लेखक वाल्मीकि ऋषि माने जाते हैं। उनको वाल्मीकिसूत्र भी कहते हैं । इन सूत्रों का समय इतना प्राचीन नहीं हो सकता है, क्योंकि जिस रूप में यह अब प्राप्त होता है, उसमें महाराष्ट्री, शौरसेनो, मागधी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश इन सवका वर्णन है । त्रिविक्रम ने १४वीं शताब्दी में इन सूत्रों पर प्राकृतसूत्रवृत्ति नाम को टोका लिखो है। सम्भवतः यही इन सूत्रों का रचयिता है । हेमचन्द्र ने अपने शब्दानुशासन में स्वरचित प्राकृतसूत्रों को आठवें अध्याय में रक्खा है। उसने स्वयं उन पर टोका लिखी है। उसने इस अन्य में प्राकृत भाषा, जैन महाराष्ट्री और आर्ष प्राकृत का वर्णन किया है ।
त्रिविक्रम ने १४वीं शताब्दी में प्राकृतसूत्रों पर टोका के अतिरिक्त प्राकृतशब्दानुशासन ग्रन्थ लिखा है । १४वीं शताब्दी के ही एक खक सिंहराज ने प्राकृतरूपावतार ग्रन्थ लिखा है । १६वीं शताब्दी के न्तम भाग में लक्ष्मीधर ने षड्भाषाचन्द्रिका नामक ग्रन्थ लिखा था। इसमें उसने प्राकृत की ६ विभाषायों अर्थात् महाराष्ट्री, मागधी, शौरसेनी, पक्षाची चूलिका, पैशाची और अपभ्रंश का वर्णन किया है । एक चन्द्र नामक लेखक ( समय अज्ञात ) ने प्राकृतलक्षण ग्रन्थ लिखा है । इसका समय अनिश्चित है । एक लंकेश्वर ने शेषनाग के प्राकृतव्याकरणसूत्र पर प्राकृतकामधेनु नामक टीका लिखी है। इस लंकेश्वर का दूसरा नाम रावण था । १७वीं शताब्दी में रामतर्कवागीश ने प्राकृतकल्पतरु ग्रन्थ लिखा है । इस पर प्राकृतक मधेनु का प्रभाव पड़ा है । प्राकृतकल्पतरु ने १७वीं शताब्दी के एक लेखक मार्कण्डेय को प्राकृतसर्वस्व लिखने के लिए प्रेरित किया ।