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आस्तिक-दर्शन
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वैशेषिक सूत्रों के मन्तव्यों का समर्थन किया गया है । अतः इन सूत्रों का समय बौद्धधर्म की उत्पत्ति के बाद ४०० ई० पू० के लगभग मानना चाहिए। वैशेषिक सूत्रों के लेखक कणाद हैं । इस दर्शन का प्राचीन नाम 'योग' था। न्यायसूत्रों के लेखक गौतम हैं। इस दर्शन का प्राचीन नाम 'पान्वीक्षिको' था।
वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों पर टीका लिखी है। वात्स्यायन ने न्याय-भाष्य में अपना दूसरा नाम पक्षिलस्वामी दिया है । उसने नागार्जुन के मन्तव्यों का अपने भाष्य में खण्डन किया है और दिङनाग (४०० ई० के लगभग) ने वात्स्यायन के मन्तव्यों पर आक्षेप किए हैं । अतः वात्स्यायन का समय २०० ई. के लगभग मानना चाहिए। भारद्वाज उद्योतकर ने न्यायभाष्य की टीका न्यायवार्तिक ग्रन्थ में की है। उसका समय ६ठीं शताब्दी ई० है। वाचस्पतिमिश्र ने न्यायवार्तिक की टीका अपने ग्रन्थ न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में की है । उनका समय हवीं शताब्दी ई० का पूर्वार्द्ध है। उसने ८४१ ई० में न्यायसूचीनिबन्ध लिखा है। न्यायसूत्रों की अनुक्रमणिका है। उसने इस ग्रन्थ के अन्त में जो समय ८९८ दिया है उसे यह समझा जा सकता है कि यह शक सम्वत् है और इसलिए ६७६ ई० है । इसके अतिरिक्त इसी युग के परवर्ती वौद्ध लेखकों ने उसका उल्लेख किया है ।
प्रशस्तपाद ने अपने ग्रन्थ पदार्थधर्मसंग्रह में वैशेषिकसूत्रों का भाष्य (टीका) किया है । इस भाष्य का प्रसिद्ध नाम प्रशस्तपादभाष्य है । यह भाप्य सूत्रों को नियमित व्याख्या नहीं है, अपितु वैशेषिकदर्शन पर यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है । प्रशस्तपाद का समय ४०० ई० के लगभग माना जाता है। चार प्रमुख विद्वानों ने प्रशस्तपादभाष्य को टीका की है- (१) उदयन (९८४ ई०) ने अपने ग्रन्थ किरणावली में, (२) श्रीधर (९६१ ई०) के न्यायकन्दली ग्रन्थ में, (३) श्रीवत्स (लगभग १०५० ई.) ने लीलावती ग्रन्थ में और (४) व्योमशेखर ने व्योमवती ग्रन्थ में। लीलावती ग्रन्थ प्राजकल अप्राप्य है । कुछ विद्वानों का मत है कि पदार्थधर्मसंग्रह की टीकाओं