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प्रास्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
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में बताए गए तीन मार्गों में से यह मत भक्तिमार्ग और श्रात्मसमर्पण ( प्रपत्ति ) को स्वीकार करता है । अपने कर्तव्यों को करने से जीव विशुद्ध हो जाता है। और ज्ञानयोग का अधिकारी होता है । इस मत के प्रनुसार वास्तविक ज्ञान यह होना चाहिए कि जीव प्रकृति से पृथक् है और वह ब्रह्म का अंशमात्र है । इस प्रकार की अनुभूति से जीव भक्ति के मार्ग पर अग्रसर होता है । थम, नियम, ध्यान आदि के द्वारा भक्तिमार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं । इस मत के अनुसार सफलता ईश्वर को आत्मार्पण करने से होती है । जो इस मार्ग के अधिकारी नहीं हैं, वे भी ईश्वर को अपने आप को अर्पण करके ही सफलता पा सकते हैं । अतएव आत्मनिक्षेप मोक्ष का सरलतम और सुनिश्चित प्रकार है । मोक्ष की स्थिति में जोवों की पारस्परिक भिन्नता समाप्त हो जाती है और वहाँ पर 'चिदनेकत्व के नाश के द्वारा चिदेकत्व की ही सत्ता रहती है'। उस अवस्था में अहंभाव का नाश हो जाता है । मोक्षावस्था आनन्दानुभूति की अवस्था है । उसमें मुक्तजीव अन्य मुक्तात्मानों के साथ विचरण करता है । जीवात्मा परमात्मा की सेवा में आनन्द का अनुभव करता है । लक्ष्मी के साथ विष्णु ब्रह्म माने गए हैं । विष्णु और लक्ष्मो एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते हैं। वे दिव्य दम्पती हैं । इस मत के अनुयायियों में से कुछ का मत है कि लक्ष्मी विष्णु की प्रिया है और वह एक सामान्य जीव है । विष्णु का शरीर अप्राकृत (भौतिक) है ।
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इस मत के अनुसार तीन प्रमाण हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द | यह मत उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता के अतिरिक्त वैष्णव आगमों को भो प्रामाणिक मानता है । वैष्णव आगम दो प्रकार के हैं - पांचरात्र और वैखानस । इन आगमों का कथन है कि ब्रह्म विभिन्न स्थानों पर विभिन्न पाँच रूप में रहता है— (१) वैकुण्ठ में 'परा' रूप में, (२) क्षीरसागर में 'व्यूह' रूप में, (३) अवतार में 'विभव' रूप में, (४) जीवात्मा और प्रकृति के अन्दर 'अन्तर्यामी' परमात्मा के रूप में और ( ५ ) पूजा के योग्य मूर्तियों में 'अर्चा' रूप में । पांचरात्र आगामों में इन विषयों का वर्णन है -- इस मत के अनुयायियों के लिए जीवन-यापन की विधि, गृहों और मन्दिरों में मूर्तियों और प्रतीकों की
सं०स० इ०-२६