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संस्कृत साहित्य का इतिहास
होता है, अतः बद्ध है और स्वतः मुक्त है। ब्रह्म में वास्तविक रूप से एकत्व और अनेकत्व रहता है । कारणावस्था में ब्रह्म एक रहता है और कार्यावस्था में वह अनेक हो जाता है । जीव ब्रह्म से अभिन्न है, परन्तु उपाधि के क रण वह उससे भिन्न भी है। ब्रह्म जीवों के अनुभवों को अनुभव करता है। भास्कर ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग दोनों को सम्मिलित रूप से स्वीकार करते हैं । भास्कर ने ब्रह्मसूत्रों का भाष्य किया है । इस मत का दूसरा नाम त्रिदण्डिमत भी है।
यादवप्रकाश मत यादवप्रकाश ११वीं शताब्दी ई० में हुआ था । वह अद्वैतमतावलम्बो था । वह कांची में रहता था। उसने रामानुज को वेदान्त पढ़ाया था। बाद में रामानुज से उसका शास्त्रार्थ हुआ । यह कहा जाता है कि रामानुज ने उसको पराजित कर दिया और वह रामानुज का शिष्य हो गया तथा विशिष्टाद्वैत मत का अनुयायी हो गया । उसके मतानुसार ब्रह्म जंगम और स्थावर जगत् के रूप में परिवर्तित होता है । परिणामस्वरूप ब्रह्म बहुत-सी अशुद्धियों का स्थान हो जाता है, परन्तु वह शुद्ध स्वरूप में रहता है । यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि यादवप्रकाश ने ब्रह्मसूत्रों की टीका की है या नहीं। उनकी भगवद्गीता पर टीका नष्ट हो गई है । जान पड़ता है कि स्वाभाविकभेदाभेदवाद को अपनाने में उसके ऊपर भर्तृप्रपंच और आश्मरथ्य का प्रभाव पड़ा है । भेदज्ञान सांसारिक बन्धन में लाता है किन्तु मोक्ष का सम्बन्ध भेदअभेद के ज्ञान से है । भास्कर की नाईं यादव प्रकाश ज्ञानकर्मसमुच्चय का समर्थन करता है । ये दो ग्रन्थ उसकी कृति माने जाते हैं -(१) वैजयन्तीकोश और (२) यतिधर्मसमुच्चय । इसमें यतियों के कर्तव्यों का वर्णन है ।
चैतन्य-मत चैतन्य का नाम बंगाल में वैष्णवधर्म के प्रचार के साथ संबद्ध है । इनका प्रारम्भिक नाम विश्वम्भर था । इनका जन्म १४८५ ई० में हुआ था। उनके शारीरिक सौन्दर्य से उनका नाम गौर या गौरांग पड़ा । १५०६ ई० में वे