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संस्कृत साहित्य का इतिहास
ई० ) तथा अघोर शिव ( ११५० ई० लगभग ) के ग्रन्थ इस शाखा के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं ।
तामिल प्रदेश में इस शाखा को शैव सिद्धान्त कहते हैं । वहाँ पर यह शाखा शैव प्राचार्यों के द्वारा तामिल भाषा में लिखित विस्तृत साहित्य पर निर्भर है ।
कापालिक, कालामुख और लिंगायत आदि शाखाएँ पाशुपत और शैव शाखा की शाखाएँ हैं या उनसे संबद्ध हैं ।
कश्मीरी शैत्रमत
कश्मीर में शैवमत का दो प्रकार से विकास हुआ है एक स्पन्द शाखा और दूसरी प्रत्यभिज्ञा शाखा । ये दोनों शाखाएँ शैव आगमों पर निर्भर हैं । -स्पन्द शाखा का मत है कि शिव जगत् का कर्ता है । वह जगत् का उपादान कारण नहीं है और न उसे उपादान कारण की आवश्यकता है । जगत् सत्य है । वह जगत् की उत्पत्ति से किसी प्रकार भी प्रभावित नहीं होता है । मोक्ष प्राप्ति के साधन शाम्भव और प्रणव आदि हैं ।' प्रत्यभिज्ञा शाखा का भी इन विषयों पर यही मत है । साथ हो प्रत्यभिज्ञा शाखा का मत है कि जीव यद्यपि परस्पर पृथक् हैं, परन्तु वे शिव से पृथक् नहीं हैं । इस तथ्य की अनुभूति इस ज्ञान से होती है कि 'मैं ईश्वर हूँ, मैं ईश्वर से पृथक नहीं हूँ' । इसी ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतएव इस शाखा का नाम प्रत्यभिज्ञा ( पहचानना) पड़ा है । जो जीव माया के आवरण से ढके हुए हैं, उनके हृदय में यह ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। इस अंश में इस शाखा का झुकाव प्रद्वैतमत की ओर है ।
स्पन्द शाखा के सिद्धान्त वसुगुप्त ८५० ई० ) को प्रकट हुए थे । उसने इन सिद्धान्तों को शिव सूत्रों के रूप में कल्लट को पढ़ाया । इस मत पर
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१ - K. C. Pandey: Abhinavagupta, An Historical and Philosophical study. पृष्ठ ६७ ।