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आस्तिक-दर्शन
३७३ प्रायः मीमांसा-दर्शन का अर्थ लिया जाता था । न्यायदर्शन के लिए न्याय शब्द का प्रयोग बहुत बाद में प्रारम्भ हुआ है । वैशेषिक नाम इस आधार पर पड़ा है कि इस दर्शन में 'विशेष' को एक पृथक् पदार्थ माना गया है । यह माना जाता है कि इस दर्शन में माने गये कुछ विशेष सिद्धान्तों को जो स्वीकार करता है, उसे वैशेषिक कहते हैं। वैशेषिक-दर्शन का सम्बन्ध तत्त्वमीमांसा से है और न्यायदर्शन का सम्बन्ध विश्व के तथ्यों को प्रमाणमीमांसा से है। प्रमाणमोमांसा के द्वारा तत्त्वमीमांसा से संबद्ध विषयों का विवेचन किया जाता है। अतः इसको लक्षण -विज्ञान कह सकते हैं, जिसके द्वारा अति शुद्ध रूप में लक्षणों का निर्माण होता है। दोनों दर्शनों में मनोविज्ञान से संबद्ध विषयों का भी वर्णन है । दोनों दर्शनों का उद्देश्य है निश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति । यह मोक्ष-प्राप्ति दुःखों के पूर्ण नाश से ही हो सकती है । दुःखों का अत्यन्ताभाव तत्त्वों के ज्ञान से होता है । वैशेषिक दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को मानता है, किन्तु न्यायदर्शन, प्रत्यक्ष, अनमान, शब्द और उपमान इन चार प्रमाणों को मानता है। ये दोनों दर्शन वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, अतः उनको स्वतःप्रमाण मानते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में मनुष्य और ईश्वर का सम्बन्ध तथा ईश्वर की उपासना का विवेचन नहीं हुआ है । यह विवेचन ईसवीय सन् के बाद प्रारम्भ हुआ, जब उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र तथा उदयन ने इन विषयों पर विस्तृत विवेचन किया। उदयन के प्रयत्न के कारण ही बाद के दार्शनिक ग्रन्थों में उपासना-सम्बन्धी विषयों को स्थान मिला है। उदयन ने प्रास्तिकवाद के लिए बहुमूल्य देन दी है । उदयन के पश्चात् न्याय और वैशेषिक के दोनों दर्शन एक ही दर्शन के रूप में वर्णन किये गये हैं। इस समय प्रमाण मीमांसा वाला अंश बहुत अधिक विकसित हुआ । इन दर्शनों का तार्किक-विवेचन इतना पूर्ण हो गया कि अन्य दर्शनों तथा साहित्य-शास्त्र आदि ने भी इस ताकिक-विवेचन की पद्धति को अपनाया । १. द्वित्वे च पाकजोत्पत्तौ विभागे च विभागजे ।
यस्य न स्खलिता बुद्धिस्तं वैशेषिकं विदुः ॥