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अध्याय ३४
मीमांसा-दर्शन मीमांसा दर्शन का सम्बन्ध वेदों की व्याख्या से है । वैदिक साहित्य दो भागों में विभक्त है-कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । कर्मकाण्ड में संहिता, ब्राह्मण और प्रारण्यक ग्रन्थ आते हैं । ज्ञानकाण्ड में उपनिषद् ग्रन्थ आते हैं। मीमांसा-दर्शन का सम्बन्ध वेदों के कर्मकाण्ड भाग से ही है, अतएव उसको पूर्वमीमांसा भी कहते हैं । वेदान्तदर्शन ज्ञानकाण्ड शब्द पर निर्भर है, अतः उसको उत्तरमीमांसा कहते हैं । उत्तरमीमांसा में उत्तर शब्द परकालीन वैदिक साहित्य अर्थात् उपनिषदों का निर्देश करता है।
पूर्वमीमांसा के आधार ब्राह्मण ग्रन्थ हैं । इसमें वैदिक मंत्रों की व्याख्या के लिए नियम तथा कतिपय न्याय ( सिद्धान्त ) बताए गए हैं । ये नियम बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुए हैं और इनका उपयोग वेदान्तदर्शन में भी हना है । लौकिक कठिन सन्दर्भो की व्याख्या के लिए भी इन नियमों का उपयोग किया जाता है। यह दर्शन विचारात्मक होने की अपेक्षा अधिक क्रियात्मक है । इस दर्शन में दार्शनिकता को अपेक्षा धार्मिक विचार अधिक प्रबल है। अन्य दर्शनों में वह प्रकार बताया गया है कि जीव किस प्रकार सदा के लिए मुक्त हो सकता है, परन्तु यह दर्शन बताता है कि मनुष्यजीवन में उसके क्या अधिकार और कर्तव्य हैं । ___ यह दर्शन वेदों को नित्य तथा स्वत: प्रमाण मानता है । इसके अनुसार वेद किसी व्यक्तिविशेष की रचना नहीं है । वे परमात्मा की भी कृति नहीं हैं। वे नित्य हैं। इस दर्शन के प्रमुख प्राचार्यों ने, विशेषरूप से प्रारम्भिक समय में, वेदों की प्रामाणिकता पर विशेष रूप से बल दिया है। उन्होंने यह कार्य वैदिक धर्म को बौद्धों और जैनों के आक्रमण से बचाने के लिए किया था । इस काल में इस दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ