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आस्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
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जाता है । इस अद्वैत का अनुभव जीवित अवस्था में भी किया जा सकता है और इस अवस्था को 'जीवन्मुक्ति' कहते हैं । देहावसान होने पर जो वास्तविक मुक्ति होती है, उसे विदेहमुक्ति कहते हैं । वास्तविक रूप से जो अनुभूति होती है, उसे पारमार्थिक कहते हैं और जो इससे पूर्व अवस्था में अनुभूति होती है, उसे व्यावहारिक कहते हैं । व्यावहारिक अवस्था में जीव को धर्मशास्त्रों और मीमांसा शास्त्र में निर्दिष्ट कर्म करना अनिवार्य है । इस अवस्था में यह मत मीमांसा के भट्टमत को स्वीकार करता है और उसके द्वारा स्वीकृत ६ प्रमाणों को भी स्वीकार करता है । मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञानमार्ग को अपनाना चाहिए । माया के इस सिद्धान्त के कारण यह मत विवर्तवाद को अपनाता है । इस मत के प्राचीन लेखकों में भर्तृ प्रपंच और गौडपाद ये प्रामाणिक आचार्य माने गए हैं । भर्तृ प्रपंच का कोई ग्रन्थ प्राप्य नहीं है । गौडपाद ( ५२० - ६२० ई० ) शंकराचार्य के गुरु गोविन्दभगवत्पाद ( ५६० - ६५० ई० ) का गुरु माना जाता है । उसने माण्डूक्यकारिका लिखी है । उसमें उसने माण्डूक्योपनिषद् के अभिप्राय को स्पष्ट किया है ।
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मण्डन मिश्र ( ६१५-६६५ ई०) कुमारिल भट्ट का समकालीन था । वह एक प्रसिद्ध मीमांसक और वेदान्ती था । उसने वेदान्त विषय पर तीन प्रमुख ग्रन्थ लिखे हैं -- ( १ ) ब्रह्मसिद्धि, (२) स्फोटसिद्धि और ( ३ ) विभ्रमविवेक । उसने ब्रह्मसिद्धि में अद्वैतमतानुसार वेदान्तदर्शन के विषयों को स्पष्ट किया है । उसने स्फोटसिद्धि में भर्तृहरि के शब्दाद्वैतवाद ( स्फोटवाद) का समर्थन किया है । विभ्रमविवेक में प्रमाणमीमांसा है । वाचस्पति मिश्र ( ८५० ई० ) ने बड़े सम्मान के साथ उसके अद्वैत-विषयक विचारों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है । यह माना जाता है कि एक शास्त्रार्य में शंकराचार्य ने उसे हराया था और वह संन्यासी हो गए, अपना नाम सुरेश्वर रक्खा तथा शंकराचार्य के मत के अनुयायी हो गए । कुछ विद्वान् मण्डन मिश्र और सुरेश्वर की एकता को स्वीकार नहीं करते हैं ।
शंकराचार्य का जन्म ९३२ ई० में मालाबार में खालदि नामक स्थान पर हुआ था । उन्होंने गौडपाद के शिष्य गोविन्दभगवत्पाद से वेदान्तदर्शन - पढ़ा