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संस्कृत साहित्य का इतिहास
होता है । उनका वास्तविक समय १२६६ ई० से १२७७ ई० तक है । संन्यास की अवस्था में उनका नाम श्रानन्दतीर्थ था । उनकी उपाधियाँ थी - पूर्णप्रज्ञ, मध्यमन्दार और मध्व । यह माना जाता है कि उन्होंने ३७ ग्रन्थ लिखे थे । इनमें से अधिकांश द्वैतमत के समर्थक थ । इन ग्रन्थों में मुख्य उपनिषदों पर उनकी टीकाएँ भी सम्मिलित हैं । उन्होंने ये मुख्य ग्रन्थ लिखे हैं - ( १ ) ब्रह्मपुत्रों पर ब्रह्मसूत्रभाष्य नामक टीका, (२) ब्रह्मसूत्रों पर एक संक्षिप्त टीका ब्रह्मसूत्राणुभाष्य, (३) ब्रह्मसूत्रों में से कठिन सूत्रों पर ब्रह्मसूत्रानुव्याख्यान टीका । इस टीका का प्रचलित नाम अनुव्याख्यात है । (४) भगवद्गीता को टोका भगवद्गीताभाष्य, (५) भगवद्गीतातात्पर्यनिर्णय | इसमें भगवद्गीता के उपदेशों का वास्तविक अभिप्राय प्रकट किया गया है । उनके अन्य प्रमुख ग्रन्थ ये हैं -- ( ६ ) ऋग्भाष्य, (७) तत्त्वविवेक, (5) तत्त्वसंख्यान, (९) तत्त्वोद्योत, (१०) प्रपंचमिथ्यात्वखण्डन, (११) प्रमाणलक्षण, (१२) महाभारततात्पर्य निर्णय, (१३) भागवतपुराण की टीका भागवतव्याख्या और (१४) विष्णुतत्त्व निर्णय ।
द्वैतमत में मध्व के पश्चात् जयतीर्थ का नाम आता है । वह अक्षोभ्यतीर्य का शिष्य था । उसका समय १४वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है । उसने मध्व के प्रायः सभी ग्रन्थों को टीका की है । यदि उसकी महत्त्वपूर्ण टीकाएँ न होतीं तो द्वैतमत दार्शनिक दृष्टि से सारहीन हो जाता । मञ्च के ग्रन्थों पर उसने जो टीकाएँ की हैं, उनमें से मुख्य ये हैं - ( १ ) ब्रह्मसूत्रानुव्याख्यान की टीका न्यायसुधा, (२) प्रपंचमिथ्यात्वखण्डन की टीका पंचिका. (३) ब्रह्मसूत्रभाष्य की टीका तत्त्वप्रकाशिका और ( ४ ) भगवद्गीताभाष्य की टीका प्रमेयदीपिका । उसने दो स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखें हैं--प्रमाणपद्धति और वादावली | वादावली में अद्वैतवादियों के माया- सिद्धान्त का खण्डन किया गया है ।
जयतीर्थ के बाद प्रमुख लेखक व्यासयति ( लगभग १३०० ई० ) हुआ है । उसने एक स्वतन्त्र ग्रन् न्यायामृत लिखा है । इसमें उसने तत्त्वदीपिका १. Gollected Works of R. G Bhandarkar भाग ४, पृष्ठ ८३ ।