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आस्तिक दर्शन
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मिश्र का गुरु था । उसने न्यायमंजरी नामक ग्रन्थ लिखा जो अब विलुप्त हो चुका है।
शिवादित्य ( ११०० ई० ) ने तोन ग्रन्थ लिखा है । उनके नाम हैंसप्तपदार्थी, लक्षण-माला और हेतुखण्डन । प्रसिद्धि है कि वह तर्क की महाविद्या विधि का संस्थापक अथवा प्रवर्धक था । उसी समय श्रीवल्लभ ने वैशेषिक दर्शन पर न्यायलीलावती नामक एक ग्रन्थ की रचना की । १२वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वरदराज ने अपनी ही टीका सारसंग्रह के सहित तार्किकरक्षा नामक ग्रन्थ लिखा । लगभग उसी समय शशधर ने न्यायसिद्धान्तदीप नामक ग्रन्थ में न्यायशास्त्र के प्रमुख विषयों का वर्णन किया । उस समय और भी बहुत से ग्रन्थ लिखे गए और जो अब विलुप्त हो गए हैं तथा जिनके नाम का पता उदयन, कमलशील, वादिदेवसूरि तथा अन्य लेखकों की रचनाओं के उल्लेख से चलता है । इन विद्वानों ने कुछ लेखकों का उल्लेख और भी किया है । उनके नाम ये हैं-- शंकरस्वामी, आत्रेयभाष्यकार, रत्नकोशकार, सानातनि, श्रीवत्स, प्रशस्तमति, अविधाकरण, विष्णुभट्ट, विश्वरूप, हरिहर, भाविविक्त तथा वादिवागीश्वर । अन्तिम लेखक ( वादिवागीश्वर) के ग्रन्थ का नाम मानमनोहर दिया गया है । इनमें से कुछ लेखक सम्भवतः १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ में थे ।
गंगेश ( १३०० ई० ) ने तत्वचिन्तामणि नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा है । उस समय तक न्याय और वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थों में प्रमाणों की सहायता से प्रमेयों का ही विवेचन होता था । गंगेश ने इस विषय में एक नवीन धारा प्रचलित की । इसमें न्यायदर्शन की पद्धति को अपनाकर वैशेषिक दर्शन के सिद्धान्तों को विस्तृत समीक्षा और परीक्षा की गई है । इसका विवेचन प्रमाणों पर निर्भर है । तत्त्वचिन्तामणि चार अध्यायों में विभक्त है । प्रत्येक अध्याय में एक प्रमाण का विवेचन है । तत्त्वचिन्तामणि पर बहुत-सी टीकाएँ और उपटीकाएँ हैं। गंगेश के पुत्र वर्धमान ( लगभग १२०० ई० ) ने तत्त्वचिन्तामणि की टीका प्रकाश और उदयन के ग्रन्थां की टीका न्यायलीलावती लिखी है । जयदेव ( लगभग १२५० ई० ) ने तत्त्वचिन्तामणि की टीका तत्त्वचिन्तामण्यालोक लिखी है । अनुमान के विषय में विशेष व्युत्पत्ति के कारण उसको पक्षधर