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संस्कृत साहित्य का इतिहास
में आधा उस तत्त्व का अंश रहता है और प्राधे में शेष चार तत्वों का ग्रंश समानरूप से रहता है । पाँचों तत्त्वों के इस निर्माण की विधि को पंचीकरण कहते हैं । वस्तु का ज्ञान अहंकार और मन को सहायता से बुद्धि में होता है । प्रकृति के तीन गुण सत्त्व, रजस् और तमस् के प्रभाव से बुद्धि, अहंकार और मन के विभिन्न कार्यों का निर्णय होता है । सृष्टि के प्रारम्भ के समय कृति के एक अंश में ही परिवर्तन होता है । प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं, और प्रकृति के २३ विकारों ( महत्, अहंकार आदि) को व्यक्त कहते हैं । पुरुष (आत्मा) को ज्ञ ज्ञाता कहते हैं। आत्मा का प्रतिबिम्ब बुद्धि में पड़ता है। बुद्धि दर्पण के तुल्य कार्य करती है । बुद्धि के कार्यों को भ्रमवश अात्मा का कार्य समझ लिया जाता है । अतएव आत्मा दुःख भोगता है । व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ के विशुद्ध ज्ञान से आत्मा अपनी स्वतन्त्र और निर्लिप्त स्थिति को प्राप्त होती है। प्रात्मा न बद्ध होती है और न मुक्त होती है । वह मदा स्वतन्त्र है। सांख्यदर्शन की विशेष त्रुटि है कि इस बात का कोई कारण नहीं बताया गया है कि त्रिगुणों में वैषम्यावस्था क्यों आती है ? पुरुष (आत्मा) और प्रकृति सदा विद्यमान रहते हैं । यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि सृष्टि किस प्रकार प्रारम्भ होती है । ___ कार्य के विषय में इस दर्शन का मत है कि कार्य कारण में सदा अव्यक्त रूप में विद्यमान रहता है । कारण कार्य के रूप में प्रकट होता है। इन दोनों मन्तव्यों में से प्रथम को सत्कार्यवाद कहते हैं और दूसरे को परिणामवाद ।
यह दर्शन वेदों की प्रामाणिकता को विशेष महत्त्व नहीं देता है। महाभारत में जो सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों का वर्णन है, उससे ज्ञात होता है कि यह दर्शन प्रारम्भ में त्रास्तिक दर्शन था । संभवत: बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण यह दर्शन नास्तिकवाद को ओर झका है, जैसा कि ईश्वरकृष्ण ने इसका वर्णन किया है । निगशावादी दृष्टिकोण, ईश्वर के अस्तित्व का निषेध, वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन, ये बातें बौद्ध धर्म और सांख्य में समान है । यह भी सम्भव है कि आस्तिक सांख्यदर्शन के प्रभाव के कारण बौद्ध धर्म का विकास हुआ।