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देखिए:
संस्कृत साहित्य का इतिहास
प्राप्तनिश्चयालङ्कार
जैन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं और न वे वेदों को ज्ञान का श्रादिस्रोत मानते हैं । उनके मतानुसार तीन प्रमाण हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ( जैन प्राचार्यों के ग्रन्थ के रूप में ) ।
माने हैं
सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्य पूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।
सांसारिक वस्तु के अस्तित्व के विषय में जैनों ने 'स्याद्वाद' नाम का एक विचित्र सिद्धान्त प्रस्तुत किया । एक वस्तु जिसको हम विद्यमान कहते हैं, वह स्वरूप में है, परन्तु ग्रन्य विद्यमान वस्तुओं के रूप में नहीं है । अतः उसको एक रूप में 'है' कह सकते हैं और अन्य वस्तुनों के अस्तित्व की दृष्टि से 'नहीं है' कह सकते हैं । उसको एक विशेष नाम से पुकार सकते हैं, परन्तु अन्य नामों से उसे नहीं पुकार सकते हैं । अतएव एक वस्तु को अनेक रूप से प्रस्तुत कर सकते हैं । अतः जैनों ने वस्तु के अस्तित्व के विषय में सात प्रकार - (१) वस्तु है, (२) वस्तु नहीं है, (३) वस्तु है और वस्तु नहीं है, (४) वस्तु अवर्णनीय है, (५) वस्तु है, परन्तु ग्रवर्ण्य है, (६) वस्तु नहीं है और अवर्णनीय है और ( ७ ) वस्तु है, वस्तु नहीं है और प्रवर्णनीय है । सात प्रकार से वस्तु को प्रस्तुत करने के कारण इसे सप्तभंगीनय भी कहते हैं ।
महावीर के स्वर्गवास के पश्चात् उसके अनुनायी दो विभागों में विभक्त हो गए - ( १ ) दिगम्बर और ( २ ) श्वेताम्बर । दिगम्बर मार्ग के अनुयायियों का यह मत है कि मोक्ष के इच्छुक को चाहिए कि वह अपनी सभी वस्तुओं का परित्याग कर दे । वस्त्र भी प्रावरण है, अतः उनका भी परित्याग कर 1 स्त्रियाँ मोक्ष की अधिकारिणी नहीं हैं । अतएव इस मार्ग के अनुयायी दिगम्बरत्व ( पूर्ण नग्नत्व) का प्रचार करते थे । इस मार्ग को निर्ग्रन्थिक भी कहा जाता है । श्वेताम्बर मार्ग के अनुयायी श्वेताम्बर ( श्वेत वस्त्र ) को पहनना स्वीकार करते थे और उनके मतानुसार स्त्रियां भी मोक्ष की अधिकारिणी हैं ।
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