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संस्कृत साहित्य का इतिहास
बुद्ध ने जिन सिद्धान्तों की स्थापना की, वे ही बौद्ध दर्शन के मूल सिद्धान्त हुए । जीवन दुःखमय है । इच्छा और काम से वशीभूत होकर किये गये कर्मों के कारण दुःख होता है। इस प्रकार के कर्मों में निरन्तर लिप्त होने से मनुष्य दुःख में पड़ा रहता है और कर्म सिद्धान्त तथा पुनर्जन्म सिद्धान्त के वश में होकर बार-बार जन्म और मृत्यु को प्राप्त होता है । अज्ञान के कारण ही मनुष्य काम के वश होकर कार्यों को करता है । सम्यक् ( वास्तविक ) ज्ञान के द्वारा ही यह ज्ञान दूर होता है । सम्यक् ज्ञान में यह ज्ञान भी सम्मिलित है कि ग्रात्मा नहीं है और न यह जगत् ही है । आत्मा के अस्तित्व को मानने से सम्यक् ज्ञान नहीं होने पाता । आत्मा को मानने से राग और काम को स्थान मिल जाता है । पुनर्जन्म में भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता है, अपितु चरित्र का पुनर्जन्म होता है । इस संसार का भी अस्तित्व नहीं है । यह जो कुछ संसार दृष्टिगोचर होता है वह क्षणभंगुर और ज्ञान होता है तो अज्ञान नष्ट हो जाता है और काम भी नष्ट हो जाते । जब सम्यक् ज्ञान हो जाता है तब कर्म करना भी समाप्त हो जाता है और परिणामस्वरूप दुःख का अभाव हो जाता है | दुःखों का प्रभाव समाधि के द्वारा ही होता है । समाधि के द्वारा दुःखों का अत्यन्त प्रभाव हो जाता है । परिणामस्वरूप जगत का और ज्ञान का भी अभाव हो जाता है । इस स्थिति को निर्वाण कहते हैं । निर्वाण शब्द का अर्थ है, बुझना या समाप्त होना । अतः निर्वाण उस अवस्था का नाम है, जहाँ सब चीजें समाप्त हो जाती हैं और कुछ शेष नहीं रहता है । इससे सिद्ध होता है कि वास्तविक सत्य 'शून्य' है ।
जो 'बोध' के लिए प्रयत्न करता है, उसे बोधिसत्त्व कहते हैं । वह गृहस्थ या भिक्षुक कोई भी हो सकता है । उसके आचरण में विश्वहित की भावना प्रमुख होना चाहिए । बोधिसत्त्व से बुद्ध की अवस्था को प्राप्त करने के लिए कई सोढ़ियों को पार करना होता है । उसको दान ( दान देना ), शोल ( सदाचार के नियमों का पालन ), क्षान्ति ( क्षमा ), वीर्य ( शक्ति ), ध्यान ( समाधि ) और प्रज्ञा ( ज्ञान ), इन ६ पारमितों ( उच्च गुणों )
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अस्थिर है । जब सम्यक् उसके साथ ही इच्छा और