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संस्कृत साहित्य का इतिहास
की भावना को महत्त्व देते हैं, उसका भी कारण यही है कि संन्यास के द्वारा उत्तम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है । अतः यह मानना ठीक है कि भारतीय दर्शनों में आशावाद की भावना व्याप्त है।
विचारों की विभिन्नता के कारण दर्शन भी अनेक हैं । दर्शन का अर्थ है ज्ञान-प्राप्ति के साधन का आध्यात्मिक दृष्टि से दर्शन अर्थात् साक्षात्कार करना । प्रत्येक दर्शन का उद्देश्य है तत्त्व-दर्शन अर्थात् सत्य का साक्षात्कार करना । समस्त दर्शनों को स्थूलरूप से दो भागों में विभक्त किया गया है-आस्तिक और नास्तिक । प्रास्तिक दर्शन का अर्थ है जो दर्शन वेदों की प्रामाणिकता को मानते हैं और जो वेदों की प्रामाणिकता को नहीं मानते हैं, वे 'नास्तिक' 'दर्शन हैं । इस व्याख्या के अनुसार नास्तिक दर्शन तीन हैं--चार्वाक, बौद्ध और जैन, क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को नहीं मानते हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त ये ६ दर्शन आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं, क्योंकि ये वेदों की प्रामाणिकता को मानते हैं। वेदों की प्रामाणिकता को मानने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनका अन्धानकरण किया जाय । वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हुए उनके मन्त्रों का अर्थ अपने मतानुसार करने की स्वीकृति दी गई है।
उपनिषद् आस्तिक तथा नास्तिक हर प्रकार के सिद्धान्तों के स्रोत रहे हैं, यद्यपि नास्तिक वर्ग स्रोतों की समस्त प्रामाणिकताओं का निषेध करेगा । इनमें कुछ तो दर्शन में परिवर्तित हो गये हैं, जब कि दूसरे नास्तिक सिद्धान्त में घुल-मिल गये हैं। कुछ सूत्र रूप में नियमित कर दिये गये और कुछ ज्यों के त्यों बने रह गये । प्रत्येक दर्शन के प्रवर्तक प्रायः इन समस्त सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित थे । इसलिए जब कभी किसी दर्शन में किसी अन्य या विरोधी विचारों के उल्लेख मिलें तो यह समझना चाहिए कि इन काल्पनिक सिद्धान्तों का उल्लेख इसी रूप में है न कि उनसे सम्बन्धित कोई विशेष पाठ्य-पुस्तक है । इसलिए विभिन्न दर्शनों के सूत्रसंग्रह की बात निरर्थक है, यदि विपरीत भाव से कोई प्रमाण नहीं है ।