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संस्कृत साहित्य का इतिहास विशेष रूप से इन विषयों पर विस्तृत विवेचन है। इन ग्रन्थों से तथा अन्य ग्रन्थों से इन धर्मशास्त्रों में श्लोकादि लिए गए हैं । यही कारण है कि इन ग्रन्थों में उपदेशात्मक श्लोकादि प्राप्त होते हैं । इन ग्रन्थों में कुछ ऐसे भी श्लोकादि हैं, जो कि कई धर्मग्रन्थों में एक ही प्रकार से प्राप्त होते हैं। इसका कारण यह है कि ये श्लोक एक ही मूलग्रन्थ महाभारत आदि से लिए गए हैं, अत: समान हैं । अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि इस धर्मशास्त्र ने उस धर्मशास्त्र से श्लोक उद्धृत किया है । साधारणतया ये शर्मशास्त्र पद्य और गद्य में हैं । गद्यभाग का व्यवहार वहाँ किया गया है, जहाँ उस विषय पर कुछ विवेचन किया गया है ।।
धर्म का अर्थ कर्तव्य है । यह मनुष्य के विचार का स्वरूप है । इसमें नीतिशास्त्र का भी विवेचन होता है और इसमें प्रायश्चित्त के साधन भी दिये जाते हैं। धर्म का एक अङ्ग व्यवहार है । मुख्य रूप से धर्मशास्त्रों में चार बातों का वर्णन होता है । वे ये हैं--(१) प्राचार । इसमें मनुष्य के प्राचारसम्बन्धी विषयों का वर्णन होता है। (२) व्यवहार । इसमें वैध और राजकीय कर्तव्यों का वर्णन होता है। (३) प्रायश्चित्त । इसमें प्रायश्चित्तों का वर्णन होता है। (४) कर्मफल । इसमें पूर्वकृत कर्मों के फल का वर्णन होता है । इन धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों और चारों आश्रमों के लिए प्रत्येक पुरुष और स्त्री के लिए अपने-अपने आश्रमादि के अनुसार जीवनपर्यन्त क्या काम करने चाहिए और किन कर्मों का परित्याग करना चाहिए, इसका विस्तृत विवेचन होता है।
वैदिक ग्रन्थों के द्वारा जनता की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती थी, अतः विभिन्न धर्मशास्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ । धर्मशास्त्र पर प्राचीन ग्रन्थ ये हैं गौतम (६००-४०० ई० पू०) का धर्मसूत्र, बौधायनधर्मसूत्र (५००-२०० ई० पू०), आपस्तम्बधर्मसूत्र (६००-३०० ई० पू०), वासिष्ठधर्मसूत्र, विष्णुधर्मसूत्र (३००-१०० ई० पू०), हारीतधर्मसूत्र, शंख और लिखित (३००-१०० ई० पू०) के धर्मसूत्र, विखानस्, पैठीनसी, उशनस,