________________
२०८
संस्कृत साहित्य का इतिहास
नियम का संस्कृत नाटकों में उल्लंघन हुआ है। यह भी माना जाता है कि दो अंकों की घटनाओं के बीच में एक रात्रि का कम से कम व्यवधान होना चाहिए । इस नियम का भी पालन नहीं हुआ है । कतिपय नाटकों में अगला अंक पूर्व अंक से क्रमबद्ध है और उसमें समय का कुछ भी व्यवधान नहीं है । शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीय, उत्तररामचरित आदि नाटकों की घटनाएँ कई वर्ष की घटनाएँ हैं। उत्तररामचरित के द्वितीय अंक की कथा प्रथम अंक को कथा से १२ वर्ष बाद की घटना है ।
स्थान की एकता का भी पालन नहीं किया गया है । नाटकों के लिए जो भाव लिया गया है, वह विभिन्न स्थानों का है । साथ ही यह विश्वास कि अलौकिक जीव भी मनुष्य के कार्यों में हाथ डालते हैं, दृश्य के स्थानपरिवर्तन का कारण हो जाता है । स्थानपरिवर्तन के बिना इन दृश्यों की वास्तविकता दर्शकों के सम्मुख उपस्थित नहीं की जा सकती है। विक्रमोर्वशीय और शाकुन्तल के दृश्य कुछ पृथिवो पर घटित हुए हैं और कुछ स्वर्ग में । कई नाटकों में एक ही अंक में स्थानपरिवर्तन हो गया है।
संस्कृत नाटकों में कथानक की एकता को विशेष महत्त्व दिया गया है । कथानक को एकता का पूर्णतया निर्वाह कालिदास, शद्रक आदि नाटककारों ने ही किया है । भरत के नाट्यशास्त्र का यह श्लोक नाट्य में भाव के महत्त्व पर प्रकाश डालता है--
नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरालकम् ।
लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम् ।। भरत ने यह उल्लेख किया है कि अभिनय का उद्देश्य लोगों को सदुपदेश देना, आमोद और विहार आदि प्रदान करना है, अतः अभिनयदर्शकों को इसका आनन्द अवश्य लेना चाहिए । आनन्द वैयक्तिक अनुभूति में होता है जो सुखद है और जिसकी उत्पत्ति घटनाओं अथवा दृश्यों से होती है । इस प्रकार के सुख का आभार मानस अनुभूतियों या भावों का उत्कर्ष है । इसीलिए प्रत्येक अभिनयद्रष्टा को शान्ति , आमोद , हर्ष और विषाद की