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संस्कृत नाटक
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ने इस विवाह की स्वीकृति दी। पुष्यमित्र और अग्निमित्र दोनों शुंग वंश के राजा थे। इस वंश का राज्य १८३ ई० पू० के लगभग प्रारम्भ हुआ था । कुछ राजनीतिक घटनामों का उल्लेख इस नाटक में ही मिलता है, अन्यत्र नहीं; जैसे-माधवसेन और यज्ञसेन की शत्रता । यह नाटक अग्निमित्र के राजद्वार में घटित घटनाओं पर आश्रित ज्ञात होता है। यह संभव प्रतीत होता है कि कालिदास अग्निमित्र का समकालीन था या उसकी सभा में एक कवि था या वह अग्निमित्र के कुछ ही समय बाद हुआ था, जब जनता को अग्निमित्र के जीवन की घटनाएँ पूर्णतया स्मरण थीं।
विक्रमोर्वशीय में पाँच अंक हैं । स्वर्गीय अप्सरा उर्वशी को एक राक्षस भगाकर ले जा रहा था। प्रतिष्ठान के राजा पुरूरवा ने उसकी रक्षा की । वह अपने रक्षक से प्रेम करने लगी और पुरूरवा भी उसके प्रेम में बद्ध हो गया। स्वर्ग को जाने के बाद एक बार वह गुप्त रूप से पुरूरवा से आकर मिली। एक बार देवताओं के सामने प्रदर्शित किये जाने वाले एक नाटक में वह एक विशेष पात्र का अभिनय कर रही थी, परन्तु उसका मन पुरूरवा की अोर लगा हुआ था, अतः एक स्थान पर जहाँ उसे विष्णु का नाम लेना चाहिए था, उसने पुरूरवा का नाम ले लिया। भरत मुनि ने उसको इस त्रुटि के लिए दोषी बताया और उसे शाप दिया कि जब तक वह अपने प्रेमी से पुत्र न प्राप्त कर ले तब तक स्वर्ग में न रहे । वह मर्त्यलोक में आयी और अपने प्रेमी के साथ आनन्दपूर्वक दिन व्यतीत करने लगी। पुरूरवा की रानी ने उनकी यह स्वतन्त्रता नहीं रोकी। एक दिन उर्वशी ईर्ष्या-भाव से एक निषिद्ध वाटिका में गयी और वहाँ वह लता के रूप में परिवर्तित हो गयी। राजा पुरूरवा अपनी प्रिया को न पाकर पागल हो गया और उसको
ढ़ता हया इधर-उधर फिरने लगा। एक दिन सहसा उसने वही लता छई, जिसमें उर्वशी परिवर्तित हुई थी। वह जीवितरूप में उठकर खड़ी हुई । महल में लौटकर आने के बाद उसका पुत्र उसके सामने लाया गया। उस पुत्र का लालन-पालन अब तक एक और स्त्री करती थी। राजा ने