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संस्कृत साहित्य का इतिहास एक इतिहास सम्बन्धी प्रयत्न समझना चाहिए। उनके मतानुसार वह भी देखो घटनाओं पर पूर्ण विश्वास रखता था, अतएव ऐतिहासिक घटनाओं का पूर्ण तत्त्व ठीक नहीं समझ सकता था । इसीलिये उसने ऐतिहासिक महत्त्व की घटनाओं का जो अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है, उसे अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन समझना चाहिए।
सत्य कहा जाय तो भारतीयों ने कोई इतिहास का ग्रन्थ नहीं लिखा है । पाश्चात्य विद्वान् ऐतिहासिक बुद्धि से जो अर्थ समझते हैं, उसका भारत में अभाव था । भारतीय विचारधारा इतिहास लिखने के विरुद्ध है, यह सत्य है । तथापि इस प्रकार के प्रयत्न अवश्य किए जाते रहे हैं कि इतिहास लिखा जाय और समकालीन घटनाओं का उल्लेख किया जाय, परन्तु ये सब कार्य भारतीय विचारधारा के अनुसार ही किये गये हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने जो ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें ऐतिहासिक तथ्यों को विशेष मुख्यता दी गई है, भाषा को नहीं, परन्तु भारतीयों ने जो ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें भाषा ही को प्रधानता दी गई है, ऐतिहासिक तथ्यों को उतनी प्रधानता नहीं । उन्होंने जो कुछ भी लिखा है, वह गद्यकाव्य, पद्यकाव्य, चम्पू या नाटक के रूप में लिखा है। काव्य नाटक आदि के सभी नियमों का इनमें पालन किया गया है । इतिहास-सम्बन्धी ग्रन्थों के लेखक कवि थे । वे किसी राजा के आश्रित थे। अतः वे अपने काव्यों में उतना ही ऐतिहासिक तथ्य रख सकते थे, जितना उनके आश्रयदाताओं को रुचिकर होता था। वह अंश भी राजाओं की रुचि के अनुकूल रखा जाता था। अतः यह स्वाभाविक है कि ऐसे ग्रन्थों से निष्पक्ष ऐतिहासिक तथ्य की प्राप्ति की आशा नहीं की जा सकती है। तथापि कुछ लेखकों ने ऐतिहासिक तथ्यों का सत्यता के साथ उल्लेख किया है । इन लेखकों को इस आधार पर तुच्छ नहीं कहा जा सकता है कि वे कुछ बातों पर विश्वास करते थे । उनके ये विश्वास शताब्दियों के अनभव पर आश्रित हैं । अतः उनको ऐतिहासिक-चेतना से हीन नहीं कह सकते हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि भारतीयों ने इतिहास लिखा है, परन्तु वैसा नहीं जैसा पाश्चात्य विद्वान् चाहते हैं ।