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शास्त्रीय ग्रन्थ
३११ शन होता है । उसको ही स्फोट कहा जाता है । शब्द केवल ध्वनिमात्र नहीं है। उनमें स्फोट का अंश रहता है, जो कि बहुत सूक्ष्म और अदृश्य है । शुद्ध शब्दों का उच्चारण धर्म करने के तुल्य है । स्फोट ब्रह्म है । उसको मानने के कारण वैयाकरणों को शब्दब्रह्मवादी कहा जाता है । संगीतज्ञ भी शब्दब्रह्म के उपासक होते हैं । मण्डन मिश्र ( ६१५-६६५ ई० ) ने अपने ग्रन्थ स्फोटसिद्धि में स्फोट सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। नागेश भट्ट ने अपने ग्रन्थ स्फोटवाद में इस सिद्धान्त को विधिवत् रक्खा है ।। पाणिनीय व्याकरण के अतिरिक्त अन्य व्याकरण की शाखाएँ
पाणिनीय अष्टाध्यायी के बहुत समय बाद यह आवश्यकता अनुभव हुई कि पाणिनि के विशाल ग्रन्थ को जनता की सुविधा के लिए सरल बनाया जाय । बौद्ध, जैन तथा अन्य धर्मों के अनुयायियों ने यह प्रयत्न किया कि पाणिनीय पद्धति के आधार पर ऐसी पद्धति निकाली जाय जो कि उनकी
आवश्यकताओं को पूर्ण कर सके । इनमें से कई ऐसी शाखाएँ थीं, जो कि वेदोक्त धर्म को नहीं मानती थीं, अतः उन्होंने अपने ग्रन्थों से वैदिक भाग को निकाल दिया । साथ ही उन्होंने धातुपाठ, गणपाठ उणादिसूत्र और लिंगानुशासन भी अपने ढंग से पृथक् रक्खे हैं । पाणिनीय व्याकरण का प्रकट रूप से विरोध करने के कारण तथा जनप्रियता न प्राप्त कर सकने के कारण ये शाखाएँ बहुत शीघ्र नष्ट हो गई । ये शाखाएँ धर्म-विशेष के अनुयायियों के आधार पर ही कुछ समय तक चलीं । इनमें से अधिकांश शाखाएँ अब नष्ट हो चुकी हैं या उनके बहुत थोड़े अनुयायी हैं ।
चान्द्र व्याकरण की शाखा का संस्थापक एक बौद्ध चन्द्रगोमी था । उसने चान्द्रव्याकरण लिखा है। इसमें ६ अध्याय और ३१०० सूत्र हैं। उसके इस ग्रन्थ का प्रभाव काशिका पर दिखाई देता है, अतः उसका समय ५०० ई० से पूर्व मानना चाहिए। इस ग्रन्थ का तथा इस शाखा के लगभग दस ग्रन्थों का अनुवाद तिब्बती भाषा में हुआ है। इस शाखा का लंका में विशेष