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संस्कृत साहित्य का इतिहास
भट्टोजिदीक्षित १७वीं शताब्दी ई० में सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण था । यह कहा जाता है कि वह अप्पयदीक्षित का शिष्य था और उसने वेदान्त पढ़ा था । भट्टोजिदीक्षित, उसके परिवार के व्यक्तियों और उसके शिष्यों ने व्याकरणशास्त्र को बहुत बड़ी देन दी है । उसने १६३० ई० में रामचन्द्र की प्रक्रियाकौमुदी के अनुकरण पर सिद्धान्तकौमुदी लिखी है । उसके ग्रन्थ पर रामचन्द्र का प्रभाव पड़ा है। इस ग्रन्थ का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा है । जब से यह ग्रन्थ लिखा गया है, तब से इसने इतना प्रभाव डाला है कि इससे पहले के सभी ग्रन्थ इसके सामने तुच्छ पड़ गये। काशिका का भी महत्व जाता रहा । यह संस्कृत के प्रारम्भिक विद्यार्थियों के लिए व्याकरण का सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रन्थ हो गया है । भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धान्तकौमदी पर अपनो टोका प्रौढमनोरना ग्रन्थ के रूप में लिखी है। उसके अन्य ग्रन्य ये हैं- (१) शब्दकौस्तुभ । यह पाणिनि के सूत्रों पर अष्टाध्यायी के क्रम में ही टीका है । (२) लिंगानुशासनवृत्ति । यह पाणिनि के द्वारा शब्दों के लिंगों के विषय में लिखित लिंगानुशासन पर टोका है । (३) वैयाकरणमतोन्मज्जन । यह पद्यात्मक ग्रन्थ है । इसमें वैयाकरणों के दार्शनिक सिद्धान्तों को संक्षेप में वर्णन किया गया है ।
भट्टोजिदीक्षित के शिष्य वरदराज ( लगभग १६५० ई० ) ने मध्यसिद्धान्कौमदी और लघुसिद्धान्तकौमुदी ग्रन्थ लिखे हैं। ये दोनों गुन्थ सिद्धान्तकौमुदी के संक्षेप हैं । इसी समय भट्टोजिदीक्षित के भतीजे कौण्ड भट्ट ने वैयाकरणभूषणसार ग्रन्थ लिखा है। यह भट्टोजिदीक्षित के वैयाकरणमतोन्मज्जन की टीका है ।
नागेशभट्ट भट्टोजिदीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित का शिष्य था । उसका ममय १७वीं शताब्दो का अन्त माना जाता है। उसने व्याकरण, योग वर्मशास्त्र और काव्यशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । उसने जगन्नाथ के रसगंगाधर को टोका लिखी है । उसने सिद्धान्तकौमुदी की टीका के रूप में बृहच्छब्देन्दुशेखर और लघुशब्देन्दुशेखर दो ग्रन्थ लिखे हैं ये दोनों वनशः