________________
शास्त्रीय ग्रन्थ
३०७
है, अतः ये दोनों टीकाएँ संस्कृत लेखकों के समय निर्धारण में बहुत सहायक हैं । हरदत्त ने ११वीं शताब्दी ई० में काशिका की टीका पदमंजरी नामक ग्रंथ में की है ।
के
धारा के राजा भोज (१००५- १०५४ ई०) ने पाणिनि को अष्टाध्यायी अनुकरण पर सरस्वतीकंठाभरण ग्रन्थ लिखा है । इसमें आठ अध्याय हैं और ६ सहस्र से अधिक सूत्र हैं । लेखक का यह उद्देश्य ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ के द्वारा संस्कृत - व्याकरण को सरल बनाया जाय ।
११वीं शताब्दी ई० में ही जैयट के पुत्र कैयट ने पतंजलि के महाभाष्य की टीका प्रदीप नाम से को । इस प्रदीप टीका की टीका नागेश भट्ट ने उद्योत नाम से १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की और प्रलंभट्ट ( लगभग १७०० ई० ) ने उद्योतन नाम से की ।
लङ्का के एक बौद्ध भिक्षुक धर्मकीर्ति ने रूपावतार नामक ग्रन्थ लिखा है । इसमें उसने संस्कृत व्याकरण के नव पाठकों के लिए कुछ कमभेद से पाणिनि के सूत्रों की व्याख्या की है । वह १२वीं शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में हुआ था । एक बौद्ध विद्वान् शरणदेव ने ११७३ ई० में दुर्घटवृत्ति नामक ग्रन्थ लिखा है । इसमें उसने ऐसे शब्दों और प्रयोगों को, जो कि पाणिनीय व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध हैं किन्तु जिनका प्रयोग उच्चकोटि के कवियों ने किया है, शुद्ध सिद्ध किया है । विमल सरस्वती ने १४वीं शताब्दी में रूपमाला ग्रन्थ लिखा है । इसमें उसने शब्दरूपों और धातुरूपों का विवेचन किया है ।
रामचन्द्र ( लगभग १४५० ई० ) ने प्रक्रियाकौमुदी लिखी है । इसमें उसने पाणिनि के सूत्रों को नवपाठकों के लिए अपने ढंग से क्रमबद्ध किया है । नारायणीय के लेखक नारायणभट्ट ( १६०० ई०) ने प्रक्रियासर्वस्व लिखा है । इसमें उसने पाणिनि के सूत्रों को प्रक्रियानों के अनुसार क्रमबद्ध किया है । अप्पयदीक्षित ( लगभग १६०० ई०) ने व्याकरण के विवादास्पद विषयों पर पाणिनिवादनक्षत्रमाला ग्रन्थ लिखा है ।