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संस्कृत साहित्य का इतिहास
कहा जाता है । इसीलिए यह कहावत प्रचलित है -- "महाभाष्यं वा पठनीयम्, महाराज्यं वा शासनीयम्" । पतंजलि को आदिशेष का अवतार माना जाता है उसका जन्म गोनर्द (गोंडा ) में हुआ था । वह पातंजलयोगदर्शन और चरकसंहिता का भी लेखक माना जाता है ।
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पतंजलि के बाद चौथी शताब्दी ई० तक व्याकरण का कोई मौलिक ग्रन्थ नहीं लिखा गया । ऐसा ज्ञात होता है कि इस बीच में महाभाष्य का ही अध्ययन होता रहा । भर्तृहरि चौथी शताब्दी ई० में हुआ था । उसने महाभाष्य की टीका महाभाष्यदीपिका नामक ग्रन्थ में की है । वह अपूर्ण उपलब्ध है । वह चीनी यात्री इत्सिंग (६७२-६७५ ई० ) की भारतयात्रा के समय महावैयाकरण के रूप में सुप्रसिद्ध था । उसने एक दूसरा ग्रंथ वाक्यपदीय नामक लिखा है । इसमें तीन काण्ड ( अध्याय ) हैं । उनके नाम हैं- आगमकाण्ड, वाक्यकाण्ड और पदकाण्ड । इनमें क्रमशः स्फोट, वाक्य और शब्द का वर्णन है । इसमें उसने व्याकरण का दार्शनिक विवेचन किया है । उसने स्फोटवाद को स्वीकार किया है और शब्दब्रह्म के रूप में प्रद्वैतवाद को स्वीकार किया है । वह बौद्ध दार्शनिक वसुबन्धु ( ३५० ई० ) के समकालीन तथा विरोधी विद्वान् वसुरात का शिष्य था ।
वामन और जयादित्य ने पाणिनि की अष्टाध्यायी के ऊपर काशिका नाम की टीका लिखी है । इत्सिंग ( ६७२-६७५ ई० ) ने अपनी यात्रा के समय इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि का उल्लेख किया है । उस समय चीनी लोग संस्कृत जानने के लिए इस ग्रन्थ को पढ़ते थे । यह ग्रन्थ ६०० ई० के लगभग अवश्य लिखा जा चुका होगा । यह माना जाता है कि अष्टाध्यायी के प्रारम्भिक पाँच अध्यायों की टीका जयादित्य ने की और शेष तीन अध्यायों की टीका वामन ने की । इसकी टीका एक जैन विद्वान् जिनेन्द्रबुद्धि, जिनका दूसरा नाम पूज्यपाद देवनन्दी है, ने काशिकाविवरणपंजिका नाम से की है । यह टीका न्यास नाम से विशेष प्रसिद्ध है । जिनेन्द्रबुद्धि ७वीं शताब्दी ई० के उत्तरार्ध में हुआ था । काशिका और न्यास में कतिपय पूर्ववर्ती लेखकों और उनके ग्रन्थों का उल्लेख