________________
काव्य और नाट्य शास्त्र के सिद्धान्त
२६१ ग्रन्थ नष्ट हो गया है । शंकुक (८५० ई०) आनन्दवर्धन का समकालीन था । उसने नाट्यशास्त्र की टीका लिखो थी। वह टीका नष्ट हो गई है । उसका काव्यग्रन्थ भुवनाभ्युदय भो नष्ट हो गया है। उसने लोल्लट के इस मत का खण्डन किया कि रस का अनुभव प्रत्यक्ष होता है और अपना मत स्थापित किया कि रस का अनुभव अनुमान के द्वारा होता है । भट्टनायक (लगभग ६०० ई०) ने हृदयदर्पण ग्रन्थ लिखा है । यह नाट्यशास्त्र की टीका मानी जाती है। यह ग्रन्थ आजकल• अप्राप्य है । वह रस को काव्य की आत्मा मानता था काव्य से पाठकों को और नाटकीय प्रदर्शन से दर्शकों को रस का अनुभव कराया जा सकता है । कुन्तक (लगभग १००० ई०) का दूसरा नाम कुन्तल भी है। उसने एक ग्रन्थ वक्रोक्तिजीवित लिखा है । यह तीन अध्यायों में अपूर्ण प्राप्त होता है । इसमें रीति, रस, गुण और अलङ्कार की समालोचना प्रस्तुत करते . हुए उसने पुरानी शैलियों के स्थान पर तोन नई शैलियों को प्रकाशित किया है-सुकुमार, विचित्र तथा मध्यम । इसमें उसने वैदर्भी, गौड़ी जैसे पुराने भौगोलिक नामों को स्थापित करने की निरर्थकता को सिद्ध किया है । अलकारों तथा रस ने प्रत्येक शैलो को उत्तम बनाने के लिए पृथक-पृथक योग प्रदान किया। इतना ही नहीं, उसने यह भी अनुभव किया कि लेखक का चरित्र उसको रचना में प्रतिबिम्बित होता है और यह देखा जाता है कि प्रत्येक लेखक की साहित्यिक शैलो पृथक् होती है । स्पष्ट बात यह है कि उस समय रचना करने की तीन शैलियाँ थीं । कालिदास, हरिविजय के लेखक सर्व सेन इत्यादि सुकुमारमार्ग के आचार्य थ । विचित्रमार्ग के प्रतिनिधि थे-- बाण, भवभूति तथा राजशेखर । बाणविरचित हर्षचरित इसके उदाहरण रूप में आता है। मातृगुप्त, मायुराज और मंजीर ने मध्यममार्ग का प्रतिनिधित्व किया। वह अभिनवगुप्त का परवर्ती समकालीन था। उसने ध्वनिवाद का खण्डन किया और मत स्थापित किया कि काव्य की आत्मा वक्रोक्ति है। उसने अलङ्कारों को स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति इन दो भागों में विभक्त किया है । उसने ध्वनि और रस को अलङ्कारों से गौ माना है । उसका मत है कि काव्य और नाटक का सौन्दर्य वक्रोक्ति अलङ्कारों में रहता है, ध्वनि