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संस्कृत साहित्य का इतिहास के कई अंगों पर ग्रन्थ लिखकर अपनी विशेष योग्यता का परिचय दिया है । उसने काव्यशास्त्र पर दो उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे हैं - सरस्वतीकण्ठाभरण और शृङ्गारप्रकाश । सरस्वतीकण्ठाभरण एक विशाल ग्रन्य है । इसमें पाँच प्रकाश (अध्याय) हैं । इसमें काव्य के गुणों और दोषों, अलंकारों और रसों का विवेचन है । तीन रीतियों में एक लाटी रीति का समावेश रुद्रट ने किया था, उन चार में अवन्ती और मागधी दो और रीतियों का समावेश करके उनको ६ कर दिया है। उसने अपने से प्राचीन लेखकों के बहुत उद्धरण दिए हैं । अतः उसका ग्रन्थ कवियों के काल-निर्णय में बहुत अधिक सहायक होने से महत्त्वपूर्ण है। शृङ्गारप्रकाश में ३६ अध्याय हैं । इसके प्रारम्भिक १२ अध्यायों में महाकाव्य और नाटक के लक्षण, काव्य के गुणों और दोषों का विवेचन है । शेष २४ अध्यायों में रसों का विवेचन है और उनमें शृङ्गार को मुख्यता दी गई है।
क्षेमेन्द्र (१०५० ई०) अभिनवगुप्त का शिष्य था। उसने दो ग्रन्थ लिखें हैं - औचित्यविचारचर्चा और कविकण्ठाभरण । औचित्यविचारचर्चा में लेखक ने अपना मत प्रदर्शित किया है कि रस के परिष्कार में औचित्य मुख्य सहायक है । उसका कथन है कि रस को प्रात्मा औचित्य है । वह शब्दों, उनके अर्थों, गुणों, अलंकारों, रस तथा काव्य के सभी प्राश्रयों के औचित्य पर आश्रित है। उसने उदाहरण अपने ग्रन्थों तथा अन्य लेखकों के ग्रन्थों से दिए हैं। उसके विवेचन पर ध्वनि-मत का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। वह अपने विवेचन में सर्वथा निष्पक्ष है । वह बड़े से बड़े प्रसिद्ध कवि के काव्यगत दोषों को प्रकट करने में संकोच नहीं करता है और न उसका कोई विशेष प्रिय कवि है। कविकण्ठाभरण में पाँच अध्यायों में इन विषयों पर विचार किया है-कोई व्यक्ति कवि कैसे हो सकता है, कवि ने जो स्थान प्राप्त कर लिया है उसको स्थिर कैसे रक्खे तथा कवि और उनके कार्यसम्बन्धी अन्य सभी बातों पर उपयोगी सूचनाएँ दी हैं। उसने जिन कवियों और ग्रन्थों के उद्धरण दिये हैं, उनमें से बहत से कवि और ग्रन्थ केवल नाम मात्र ही शेष हैं। उसके अपने लिखे हुए कई
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