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कालिदास के परवर्ती नाटककार
२४५ उपराजा बनाए जाते हैं। यह सबसे पहला नाटक है, जिसमें रामायण के उत्तरकाण्ड की कथा आई है । इसमें विदूषक है।
विशाखदत्त राजा पृथु के मन्त्री भास्करदत्त का पुत्र था। उसने मुद्राराक्षस नाटक लिखा है। इसमें सात अङ्क हैं। इसके भरतवाक्य में राजा चन्द्रगुप्त का उल्लेख है। इस चन्द्रगुप्त के स्थान पर दन्तिवर्मा, रन्तिवर्मा और अवन्तिवर्मा पाठभेद हैं। भरतवाक्य का चन्द्रगुप्त, मौर्य चन्द्रगुप्त के लिए नहीं है, क्योंकि वह इस नाटक का नायक है। वह गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए हो सकता है । ऐसी अवस्था में लेखक का समय ३५० ई० के लगभग मानना चाहिए । दन्तिवर्मा पाठ मानने पर वह राष्ट्रकूट राजा दन्तिवर्मा (६०० ई०) या लाट राजा दन्तिवर्मा (८५० ई०) या पल्लव राजा दन्तिवर्मा (८०० ई०) के लिए हो सकता है। दन्तिवर्मा पाठ भ्रमात्मक ज्ञात होता है । अवन्तिवर्मा पाठ से लेखक का सम्बन्ध स्थाण्वीश्वर के राजा हर्ष की बहिन राज्यश्री के श्वशुर मौखरी वंश के राजा अवन्तिवर्मा से ज्ञात होता है। इसके अनुसार लेखक का समय ६०० ई० ज्ञात होता है और वह बंगाल के समीप का रहने वाला सिद्ध होता है । मौखरी राजा के साथ उसका सम्बन्ध तथा ६०० ई० के लगभग उसका समय उचित प्रतीत होता है, क्योंकि लेखक पटना की उस समय की स्थिति से सर्वथा अभिज्ञ था। उसने नाटक में पटना को समृद्ध नगर बताया है । ह्वेनसांग की यात्रा के समय यह नगर नष्ट हो गया था । अतः लेखक का समय ५०० ई० के बाद तथा ६०० ई० से पूर्व समझना चाहिए। इस नाटक में उन्हीं हूणों का उल्लेख समझना चाहिए, जिन पर राज्यवर्धन ने आक्रमण किया था। इस नाटक में वर्णन किया गया है कि नन्द राजाओं के मन्त्री राक्षस ने यह प्रयत्न किया है कि किसी प्रकार राजा चन्द्रगुप्त को गद्दी से हटाया जाय, क्योंकि छलपूर्वक नन्दों का वध करके चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बैठाया गया था। राक्षस के सभी प्रयत्न कुटनीतिज्ञ ब्राह्मण चाणक्य के कारण विफल