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संस्कृत साहित्य का इतिहास
हितेच्छु था । वह चाहता था चाणक्य ने अपने दूतों के च प्राप्त कर ली और उस एक जाली पत्र लिखा
रहे । चाणक्य चन्द्रगुप्त का चन्द्रगुप्त का मंत्री बनाऊँ । राक्षस की राजकीय मुद्रा ( मुहर ) लगाकर राक्षस के समर्थकों के नाम पर राक्षस की मुहर थी, अतः उसके द्वारा राक्षस और उसके सहायकों में मतभेद हो गया । राक्षस निराश्रित हो गया । चन्द्रगुप्त के प्रदेशानुसार उसका एक प्रिय मित्र राजद्रोह के अभियोग में फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था । राक्षस उसे बचाने के लिए दौड़ा । चाणक्य ने प्रतिज्ञा की कि वह उसके मित्र को फाँसी से छुड़ा देगा, यदि राक्षस चन्द्रगुप्त का मंत्रा होना स्वीकार करे । राक्षस के पास और कोई मार्ग नहीं था । अतः उसने विवश होकर मन्त्री होना स्वीकार किया । चाणक्य राक्षस की मुद्रा के द्वारा अपने प्रयत्न में सफल हुआ, अतः इस नाटक का नाम मुद्राराक्षस पड़ा है । इस नाटक पर मृच्छकटिक नाटक का प्रभाव दिखाई पड़ता है । लेखक गणित और फलित ज्योतिष तथा न्याय शास्त्र से पूर्णतया परिचित था । यही एक नाटक है, जो पूर्णतया राजनीतिक कथा से युक्त है । सूक्ष्म कथा - संघटन तथा सुसंबद्ध दृश्यों के कारण लेखक की चतुरता स्पष्ट है । इसकी शैली सरल है । इसमें शक्ति और प्रवाह है । साथ ही लम्बे समासों का प्रभाव है । विशाखदत्त का दूसरा नाम विशाखदेव भी है । साहित्यशास्त्रियों ने जिन ग्रंथों का उल्लेख किया है, उससे ज्ञात होता है कि उसने दो नाटक और लिखे हैं - ( १ ) देवीचन्द्रगुप्त | यह एक प्रेमाख्यान वाला नाटक है । इसका सम्बन्ध चन्द्रगुप्त से है । (२) अभिसारिकावंचितक या अभिसारिकाबन्धितक । इसमें उदयन, वासवदत्ता और पद्मावती पात्र हैं । ये दोनों नाटक लुप्त हो गए हैं । मुद्राराक्षस के भरतवाक्य में चन्द्रगुप्त शब्द से तथा देवीचन्द्रगुप्त के कथानक से ज्ञात होता है कि विशाखदत्त गुप्त राजाओं के दरबार में राजकवि रहा होगा । अतः उसका समय ३५० ई० के लगभग सिद्ध होता है ।
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राक्षस को
प्रयत्न से
मुहर को
उस पत्र