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कालिदास के परवर्ती नाटककार सच्ची मित्रता,' वास्तविक प्रेम, और पुत्र-वात्सल्य आदि की सूक्तियाँ वास्तविकता का प्रदर्शन कराती हैं । उनके नाटकों में हास्य नहीं है, परन्तु पताका-स्थान है। उन्होंने स्मृति, नीतिशास्त्र, कामशास्त्र और वेदान्त में अपनी विशेषता का परिचय दिया है ।
भवभूति शब्दब्रह्मवित् था। वह भाषा पर असाधारण अधिकार रखने का दावा करता है। उसके इस दावे को प्रमाणित करने के लिये तिलकमंजरी के लेखक धनपाल की प्रशस्ति से प्रमाण प्राप्त होता है ।
स्पष्टभावरस चित्रैः पदन्यासैः प्रवर्तिता ।
नाटकेषु नटस्त्रीव भारती भवभूतिना ।। अनंगहर्षमात्राराज ने ६ अंकों में तापसवत्सराज नाटक लिखा है। आनन्दवर्धन (८५० ई०) ने उसका उल्लेख किया है। उसका निश्चित समय अज्ञात है । वह ८५० ई० से पूर्व हुआ होगा। इसमें नाटक-वर्णन किया गया है कि वासवदत्ता के स्वर्गवास का झूठा समाचार सुनकर उदयन अत्यन्त खिन्न हुआ और वन में इधर-उधर घूमने लगा। वह जीवन से निस्पह होकर संन्यासी हो गया । अपने को अति दुःखमय देखकर वह अपन आपको नदो में डालकर नष्ट करना चाहता था । उधर वासवदत्ता भी अपने जीवन से तंग आकर नदी में डूबना चाहती थी। वह भी वहीं पहुंची। दोनों एक दूसरे को पाकर प्रसन्न हो जाते हैं और जीवन-त्याग का विचार छोड़ देते हैं।
मायुराज ने रामायण की कथा पर उदात्तराघव नामक नाटक लिखा है । यह ग्रन्थ अब अप्राप्य है । राजशेखर (६०० ई०) ने इसका उल्लेख किया है । अतः लेखक का समय ६०० ई० से पूर्व मानना चाहिए । कुछ आलोचकों ने अनंगहर्षमात्राराज और मायुराज को एक ही व्यक्ति माना
१. उत्तररामचरित ४. १३-१४ २. उत्तररामचरित १.३६ ३. उत्तररामचरित ३. १८ ४. उत्तररामचरित ७/२१ ५. उत्तररामचरित १/२ सं० सा० इ०-१७