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संस्कृत नाटक
कालिदासस्य । वह अन्य अलंकारों के प्रयोग में भी उसी प्रकार सिद्धहस्त है उसका उद्देश्य है कि वह रसों और भावों का पूर्ण चित्रण करे । वह यह नहीं चाहता है कि रसों और भावों को कल्पना की ऊँची उड़ान में नष्ट हो जाने दे या अलंकारों के प्रयोग में ही अपनी विद्वत्ता प्रदर्शित करे । ' भावों का सामञ्जस्य कहीं पर भी अन्य विरोधी भावों के द्वारा नष्ट नहीं होने पाया है । प्रत्येक आवेग को कृश बनाए बिना ही कोमल बनाया गया है । उसके प्रेम का आवेश प्रौचित्य की सीमा का कभी भी उल्लंघन नहीं करता है । वह प्रेमी को कभी भी इतना उन्मत्त नहीं बना देता है कि वह घोर ईर्ष्या या घृणा में परिवर्तित हो जाए । घोर दुःख शनैः-शनैः विषाद के रूप में परिवर्तित किया गया है । कालिदास की कविता में ही भारतीय प्रतिभा का उत्कृष्ट रूप दृष्टिगोचर होता है कि उसके काव्य में सामञ्जस्य है, जो कि अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है । अतएव वह स्थायी सौन्दर्य वाले काव्य की रचना कर सका ।" उसने वैदिक छन्द में भी एक श्लोक बनाया है । भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वान् उसको महाकवि के रूप में स्वीकार करते हैं । उसके विषय में जर्मन महाकवि गेटे ने लिखा है
२३५.
"क्या तूं उदीयमान वर्ष के पुष्प और क्षीयमाण वर्ष के फल देखना चाहता है ? क्या तू वह सब देखना चाहता है, जिससे आत्मा मन्त्रमुग्ध, मोद-मग्न, हर्षाप्लावित और परितृप्त हो जाती है ? क्या तू द्युलोक और पृथ्वीलोक का एक नाम में अनुगत हो जाना पसन्द करेगा ? अरे, तब मैं तेरे समक्ष शकुन्तला को प्रस्तुत करता हूँ और बस सब कुछ इसमें आ गया ।" भारतीय कवियों में बाण ने कालिदास के विषय में कहा है
निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु । प्रीतिमधुरसान्द्रासु मंजरीष्विव जायते ।।
हर्षचरित, प्रस्तावना श्लोक १६ । १. A History of Sanskirt Literature, by A. A. Macdonell.
पृष्ठ ३५३ ॥
२. अभिज्ञानशाकुन्तल, अंक ४ श्लोक ८ ।