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कथा-साहित्य
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वाहनदत्त की सहायता की । नरवाहनदत्त मदनमंजुका का पता लगाने में सफल हुआ और अन्त में विद्याधरों का महाराज हो गया । इस मुख्य कथा में कई अन्य कथाएँ सम्मिलित की गई हैं ।
बाण, दण्डी, सुबन्धु, त्रिविक्रमभट्ट, धनंजय आदि ने बृहत्कथा का उल्लेख किया है । इन सभी कवियों को इस कथा का मुख्य भाग ज्ञात था । यह ज्ञात नहीं है कि इनमें से किसी ने भी मूलग्रन्थ को देखा है या नहीं । बुधस्वामी ( वीं शताब्दी ई० ), क्षेमेन्द्र ( १०३७ ई० ) और सोमदेव ( १०८ ई० ) का कथन है कि उन्होंने मूल ग्रन्थ को देखा है और उन्होंने उसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया है । गंगा वंश के राजकुमार दूरविनीत ( ६०० ई०) किरातार्जुनीय की जो टोका लिखी है, उसमें १५वें सर्ग की पुष्पिका में लिखा है कि दूरविनीत ने गुणाढ्य की बृहत्कथा को संस्कृत में रूपान्तरित किया है । उपर्युक्त साक्षियों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि छठीं शताब्दी के बाद बृहत्कथा मूल रूप में साधारणतया प्राप्य नहीं थी । यह कश्मीर और नेपाल में तथा विन्ध्य पर्वत के कुछ प्रदेशों में, जहाँ गुणाढ्य ने इसकी रचना की थी, सुरक्षित रही ।
यदि गुणाढ्य के विषय में कथासरित्सागर के लेख पर विश्वास करें ता वररुचि ३२० ई० पू० पूर्व हुआ था, जब कि चन्द्रगुप्त मौर्य गद्दी पर बैठा था । गुणाढ्य का प्राश्रयदाता सातवाहन, आन्ध्रभृत्य राजाओं में से एक है । इस वंश का राज्यकाल ७३ ई० पू० से लेकर २१= ई० तक है । गुणाढ्य इसी समय में हुआ होगा ।
गुणाढ्य ने बृहत्कथा लिखने के लिए जिस पैशाची प्राकृत का प्रयोग किया है, वह विन्ध्य प्रदेश में व्यवहृत विभाषाओं में से एक प्रतीत होती है । श्रान्त्रभृत्य राजाओं की राजधानी गोदावरी नदी के किनारे प्रतिष्ठान नगर में थी । यह स्थान विन्ध्य पर्वत के समीप ही है । राजशेखर ने इस विचार का समर्थन किया है । डा० जार्ज ग्रियर्सन ने लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इन्डिया में अपना यह मत प्रस्तुत किया है कि पैशाची प्राकृत भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर