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प्रयुक्त होने वाले यवनिका (पर्दा) शब्द का सम्बन्ध यवन शब्द से है । भारतीय राजा यवन - कुमारियों को अंगरक्षक के रूप में नियुक्त करते थे ।
उपर्युक्त प्रमाणों से भारतीय नाटकों की उत्पत्ति यूनानी नाटकों से नहीं मानी जा सकती है । भारत और यूनान के नाटकों के पारिभाषिक अंश दोनों स्थानों पर स्वतन्त्र रूप से प्रादुर्भूत हुए होंगे । समय और स्थान की आवश्यकता के अनुसार इनका विस्तार भी स्वतन्त्र रूप से हुआ होगा । दोनों स्थानों के नाटकों में भावों की समानता भी स्वतन्त्र ही समझनी चाहिये । पात्रों का विभाजन दैनिक जीवन के प्रयोग के आधार पर है । यवनिका शब्द फारस के बने पर्दे के कपड़े के लिए है, जिससे पर्दा बनता था । इसके अतिरिक्त अन्य कई पुष्ट प्रमाण हैं, जिनके आधार पर भारतीय नाटकों की यूनानी नाटकों से उत्पत्ति का खण्डन किया जा सकता है । युनानो नाटकों में संकलनत्रय अर्थात् काल, स्थान और कार्य की एकता का कठोरता के साथ पालन किया गया है, परन्तु भारतीय नाटकों में उसके पालन का सर्वश्रा प्रभाव है । यह कहा जा सकता है कि संस्कृत नाटकों को यूनानी नाटकों का ज्ञान नहीं था । दुःखान्त नाटकों का जन्म यूनानी साहित्य की देन है, परन्तु संस्कृत साहित्य में इसका सर्वथा अभाव है । अतः यह स्वीकार करना उचित है कि संस्कृत नाटकों का जन्म और विकास स्वतन्त्र रूप से भारत में ही हुआ है । यह संभव है कि इस पर यूनानियों या अन्य विदेशियों का कुछ प्रभाव पड़ा हो ।
कुछ लोगों ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि भारतवर्ष में नाटकों का जन्म गुड़ियों के खेल से हुआ है । इसका आधार वे सूत्रधार शब्द बताते हैं । सूत्रधार शब्द का अर्थ है - रंगमंच का अधिष्ठाता । उन लोगों ने इसका अथ किया है सूत्र अर्थात् धागा पकड़ने वाला और इसका भावार्थ किया है कि गुड़िया नचाने वाला सूत्रधार होता था । यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि वास्तविक नाटकों के अनुकरण पर ही गुड़िया का खेल चला है । ये नाटक मनुष्य की स्वाभाविक प्रतिभा तथा क्रिया पर निर्भर हैं । सूत्रधार का वास्त