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चम्पू
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नीलकण्ठ दीक्षित (१६५० ई०) ने पाँच अध्यायों में नीलकण्ठविजयचम्पू लिखा है । उसका वक्रोक्ति अलंकार पर पूर्ण अधिकार है और वह भावों की सूक्ष्मता को बहुत कुशलता के साथ प्रकाशित कर सकता है, यह उसके ग्रन्थ को देखने से ज्ञात होता है । इसमें उसने शिव के पराक्रमों का वर्णन किया है । इस ग्रन्थ की रचना १६३७ ई० में हुई है। राजचूड़ामणि दीक्षित (१६०० ई०) ने भारतचम्पू लिखा है । चक्रकवि (१६५० ई०) ने द्रौपदोपरिणयचम्पू लिखा है। वेंकटाध्वरी (१६५० ई०) ने चार चम्पू ग्रन्थ लिखे हैं -विश्वगुणादर्शचम्पू, वरदाभ्युदयचम्पू, उत्तरचम्पू और श्रीनिवासचम्पू । विश्वगुणादर्शचम्पू में जीवन के अच्छे और बुरे दोनों पक्षों का उल्लेख किया गया है । अपने समय में प्रचलित रीतियों और प्रथानों की त्रुटियों का विशेष रूप से तामिल देश में प्रचलित रीतियों की त्रुटियों का, उसने बहुत मुन्दरता के साथ प्रतिपादन किया है। उसके आक्रमण के विषय पुरोहित, संगीतज्ञ, ज्योतिषी, वैद्य तथा अन्य व्यवसायों को करने वाले व्यक्ति हैं। उसने अनुप्रास पर अपने पूर्ण अधिकार का समुचित प्रदर्शन किया है । वरदाभ्युदय का दूसरा नाम हस्तिगिरचम्पू हैं। इसमें कांची में विद्यमान देवता का महत्त्व वर्णन किया गया है । उत्तरचम्पू में रामायण के उत्तरकाण्ड की कथा वणित है। श्रीनिवासचम्पू में दस अध्यायों में तिरुपति समीप तिरुमलाइ में विद्यमान देवता की प्रशस्ति वर्णित है। इन चारों ग्रन्थों में से विश्वगुणादर्श तामिल देश में बहुत अधिक प्रचलित है । बाणेश्वर ने चित्रचम्पू लिखा है। यह अर्ध-ऐतिहासिक काव्य है । यह बर्दवान परिवार के राजा चित्रसेन के जीवन का वर्णन करता है, जिनका स्वर्गवास १७४४ ई० में हुआ है । इस ग्रन्थ का समय १८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध समझना चाहिये । कृष्ण कवि ने मन्दारमरन्दचम्पू लिखा है। इसका समय अज्ञात है। इसमें छन्दों और अलंकारों आदि के उदाहरण दिये गये हैं। १९वीं शती पूर्वार्ध में तंजोर के राजा सर्कोजी द्वितीय ने कालिदास के कुमारसम्भव के विषय को संक्षिप्त करते हुए कुमारसम्भवचम्पू की रचना की है । सर्वदेवविलास में मद्रास नगर