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अध्याय १७
गद्य-काव्य अपद्यबद्ध रचना को गद्य कहते हैं ।' कृष्णयजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक आदि, वेदांग तथा प्राचीन विज्ञान-विषयक ग्रन्थ गद्य में ही हैं । वैदिक-काल के बाद श्रेण्यकाल में गद्य से पूर्व पद्य का समय आता है । रामायण, महाभारत और पुराण पद्यरूप में हैं । पद्यबद्ध रचना को स्मरण करना सरल होता है, गद्य की रचना को नहीं । अतः श्रेण्यकाल के प्रारम्भिक काल में गद्य को साहित्यिक काव्य नहीं माना गया था। इस समय पद्यबद्ध काव्यों को ही काव्य माना गया था । आलोचक पद्यात्मक काव्यों को रुचिकर मानते थे, अत: उन्होंने गद्य-काव्य को आदर नहीं दिया । अतः कवियों के लिए पद्य की अपेक्षा गद्य की रचना करना अधिक कठिन था । गद्य की सुन्दर रचना के लिए असाधारण कौशल की आवश्यकता थी । अतएव कहा गया था कि
गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति । अर्थात् गद्य कवियों के लिए कसौटी है । आलोचक यह चाहते थे कि गद्य का स्तर बहुत ऊँचा हो, अतः उनको सन्तुष्ट करने के लिए गद्य-लेखकों को यह आवश्यक हो गया कि वे गद्य में कुछ विशेष बातों को स्थान दें। इसके लिए लम्बे-लम्बे समास और विशेषणों की परम्परा को स्थान दिया गया । वर्णनों में वाक्य आवश्यकता से अधिक लम्बे हो गए। परिणाम यह हुया कि थोड़ी कथा, अधिक वर्णन और गतिशीलता का अभाव गद्य की प्रमुख विशेषता हो गई। ___ गद्य-काव्य मुख्य रूप से दो प्रकार का माना गया है--कथा और आख्यायिका । कथा को उपविभागों में बाँटा जाता है, इन्हें लम्बक कहते १. अपादः पदसन्तानो गद्यम् । दण्डी, काव्यादर्श १. २३ ।
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