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संस्कृत साहित्य का इतिहास
किन्तु बहुत ही कम । १३वें सर्ग के ३४वें श्लोक की रचना इस ढंग की है कि उसका अर्थ अग्नि, यम, वरुण, नल और इन्द्र---हरेक के विषय में लगाया जा सकता है । काव्य में यत्र-तत्र रोचक वृत्तान्त भी हैं। विवाहोत्सवों में वधूपक्ष ही विवाह का सूत्रपात करता है । साधु जन अपने नाम का उच्चारण स्वयं नहीं करते। विवाहोत्सव के . अवसर पर भवन का प्रवेशद्वार कदलीस्तम्भों से सजाया जाता है । इसके कई सर्गों के अन्तिम श्लोकों में उसने अपनी रचनाओं का उल्लेख किया है । इनमें से कुछ ये हैं--खण्डनखण्डखाद्य, गौडोऊशकुलप्रशस्ति, अर्णववर्णन और साहसांकचरित । इनमें से केवल खण्डनखण्डखाद्य प्राप्य है । शेष अप्राप्य हैं।
चण्डकवि ने पृथ्वीराजविजय नामक काव्य लिखा है। इसमें उसने अजमेर और दिल्ली के राजा पृथ्वीराज की ११६१ ई० में सुल्तान शाहबुद्दीन गौरी के ऊपर विजय का वर्णन किया है। यह काव्य पाठ सर्गों से युक्त मुद्रित हुआ है । यह अपूर्ण है । लेखक का समय १२०० ई० के लगभग मानना चाहिए । चन्द्रकवि ने ही यह काव्य बनाया है, इसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता है।
पुरी के कृष्णानन्द ने १५ सर्गों में सहृदयानन्द नामक काव्य लिखा है । उसने इसमें नल का जीवन-चरित वर्णन किया है। लेखक वैदर्भी रीति का विशेष विद्वान् है । अतः उसके काव्य में सरलता और मनोज्ञता है । संस्कृत के विशेष रोचक काव्य ग्रन्थों में यह भी एक है । लेखक का समय १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ के लगभग है । लगभग इसी समय कश्मीर के जयरथ ने हरचरितचिन्तामणि नामक काव्य लिखा है । यह पद्यात्मक ३२ प्रकाशों ( सर्ग ) में लिखा गया है। इसमें शिव और कश्मीरी शैवों के पराकमों का वर्णन किया
१. नैषधीयचरित १--५० । २. , ६-१३ । ३.
१६--१८ ।